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आगम सूत्र ३०/१,पयन्नासूत्र-७/१, 'गच्छाचार' सूत्र - १४
देश, क्षेत्र, द्रव्य, काल और भाव जानकर वस्त्र, पात्र, उपाश्रय और साधु-साध्वी के समूह का संग्रह करे और सूत्रार्थ का चिन्तवन करे, उनको अच्छे आचार्य मानना चाहिए । सूत्र - १५,१६
जो आचार्य आगमोक्त विधि से शिष्य का संग्रह और उनके लिए श्रुतदान आदि उपग्रह न करे - न करवाए, साधु और साध्वी को दिक्षा देकर सामाचारी न शीखाए । और जो बालशिष्य को गाय जैसे बछडे को चूमती है वैसे चूमे और सन्मार्ग ग्रहण न करवाए, उसे शिष्य का शत्रु मानना चाहिए। सूत्र - १७
जो आचार्य शिष्य को स्नेह से चूमे, लेकिन सारणा, वारणा, प्रेरणा और बार-बार प्रेरणा न करे वो आचार्य श्रेष्ठ नहीं है; लेकिन जो सारणा वारणादि करते हैं वो दंड आदि द्वारा मारने के बावजद भी श्रेष्ठ हैं। सूत्र - १८
और फिर जो शिष्य प्रमाद समान मदीरा से ग्रस्त और सामाचारी विराधक गुरु को हितोपदेश के द्वारा धर्ममार्ग में स्थिर न करे वो शिष्य भी शत्रु ही है। सूत्र - १९
प्रमादी गुरु को किस तरह बोध करते हैं वो दिखाते हैं । हे मुनिवर ! हे गुरुदेव ! तुम्हारे जैसे पुरुष भी यदि प्रमाद के आधीन हो तो फिर इस संसार सागर में हम जैसे को नौकासमान दूसरे कौन आलम्बन होंगे? सूत्र - २०
प्रवचन प्रधान, ज्ञानाचार, दर्शनाचार को चारित्राचार उन तीनों में और फिर पंचविध आचार में, खुद को और गच्छ को स्थिर करने के लिए जो प्रेरणा करे वो आचार्य । सूत्र-२१
चार तरह का पिंड, उपधि और शय्या इन तीनों को, उद्गम, उत्पादन और एषणा द्वारा शुद्ध, चारित्र की रक्षा के लिए, ग्रहण करे वो सच्चा संयमी है । सूत्र - २२
दूसरों ने कहा हुआ गुह्य प्रकट न करनेवाले और सर्व तरह से सर्व कार्य में अविपरीत देखनेवाले हो वो, चक्षु की तरह, बच्चे और बुढ़े से संकीर्ण गच्छ की रक्षा करते हैं। सूत्र - २३
जो आचार्य सुखशील आदि गुण द्वारा नवकल्प रूप या गीतार्थरूप विहार को शिथिल करते हैं, वो आचार्य संयमयोग द्वारा केवल वेशधारी ही हैं। सूत्र - २४
कुल, गाँव, नगर और राज्य का त्याग करके भी जो आचार्य फिर से उस कुल आदि में ममत्व करते हैं, उस संयमयोग द्वारा निःसार केवल वेशधारी ही हैं। सूत्र - २५, २६
जो आचार्य शिष्यसमूह को करने लायक कार्य में प्रेरणा करते हैं और सूत्र एवं अर्थ पढ़ाते हैं, वह आचार्य धन्य है, पवित्र है, बन्धु है और मोक्षदायक है।
वही आचार्य भव्यजीव के लिए चक्षु समान कहे हैं कि जो जिनेश्वर के बताए हए अनुष्ठान यथार्थ रूप से बताते हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(गच्छाचार)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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