________________
आगम सूत्र ३०/१,पयन्नासूत्र-७/१, 'गच्छाचार'
३०/१] गच्छाचार पयन्नासूत्र-७/१- हिन्दी अनुवाद
सूत्र-१
देवेन्द्र से नमित महा ऐश्वर्यशाली, श्री महावीर देव को नमस्कार करके, श्रुतरूप समुद्र में से सुविहित मुनि समुदाय ने आचरण किए हुए गच्छाचार संक्षेप से उद्धरकर मैं कहूँगा। सूत्र -२
गौतम! इस जगत में कुछ ऐसे भी जीव हैं कि जो, उस उन्मार्गगामी गच्छ में रहकर या उसका सहवास कर के भव परम्परामें भ्रमण करते हैं । क्योंकि असत्पुरुष का संग शीलवंत-सज्जन को भी अधःपात का हेतु होता है। सूत्र-३-७
गौतम ! अर्ध प्रहर-एक प्रहर दिन, पक्ष, एक मास या एक साल पर्यन्त भी सन्मार्गगामी गच्छ में रहनेवालेआलसी-निरुत्साही और विमनस्क मुनि भी, दूसरे महाप्रभाववाले साधुओं को सर्व क्रिया में अल्प सत्त्ववाले- जीव से न हो सके ऐसे तप आदि रूप उद्यम करते देखकर, लज्जा और शंका का त्याग करके धर्मानुष्ठान करने में उत्साह धरते हैं । और फिर गौतम ! वीर्योत्साह द्वारा ही जीव ने जन्मान्तर में किए हुए पाप, मुहूर्त मात्र में जलकर राख हो जाते हैं। ..... इसलिए अच्छी तरह से कसौटी करके जो गच्छ सन्मार्ग प्रतिष्ठित हो उसमें जीवन पर्यन्त बँसना । क्योंकि जो संयत सक्रियावान् हो वही मुनि है। सूत्र-८
आचार्य महाराज गच्छ के लिए मेढी, आलम्बन, स्तम्भ, दृष्टि, उत्तम यान समान हैं । यानि की मेथी- (जो बंध से जानवर मर्यादा में रहे वो) में बाँधे जानवर जैसे मर्यादा में रहते हैं, वैसे गच्छ भी आचार्य के बन्धन से मर्यादा में प्रवर्तते हैं । गड्ढे आदि में गिरते जैसे हस्तादिक का आलम्बन धरके रखते हैं, वैसे संसार समान गति में गिरते गच्छ को आचार्य धरके रखते हैं । जैसे स्तम्भ प्रासाद का आधार है, वैसे आचार्य भी गच्छ रूप प्रासाद का आधार है। जैसे नजर शुभाशुभ चीज जीव को बतानेवाली है, वैसे आचार्य भी गच्छ को भावि शुभाशुभ बतानेवाले हैं । जैसे बिना छिद्र का उत्तम जहाज जीव को समुद्र तट पर पहुँचाता है, वैसे आचार्य भी गच्छ को संसार के तट पर पहुँचाते हैं । इसलिए गच्छ की कसौटी करने की ईच्छा रखनेवाले को पहले आचार्य की ही कसौटी लेनी चाहिए। सूत्र-९-११
हे भगवन् ! छद्मस्थमुनि किस निशानीओं से उन्मार्गगामी आचार्य को जान सके? इस प्रश्न के उत्तर में श्री गुरु कहते हैं कि हे मुनि ! उस निशानियों को मैं कहता हूँ, वो सुनो।
अपनी मरजी के अनुसार व्यवहार करनेवाले, दुष्ट-आचारवान्, आरम्भ में प्रवर्तावनार, पीठफलक आदि में प्रतिबद्ध, अप्काय की हत्या करनेवाले- मूल और उत्तर गुण से भ्रष्ट हुए, सामाचारी के विराधक, हमेशा गुरु के आगे आलोचना नहीं करनेवाले और राजकथा आदि विकथा में हमेशा तत्पर हो वो आचार्य अधम जानने चाहिए। सूत्र - १२,१३
३६ गुणयुक्त और अति व्यवहारकुशल आचार्य को भी परसाक्षीमें आलोचना रूप विशुद्धि करनी चाहिए।
जैसे अति कुशल वैद्य अपनी व्याधि दूसरे वैद्य को बताते हैं, और उस वैद्य का कहा मानकर व्याधि के प्रतिकार समान कर्म का आचरण करते हैं, वैसे आलोचक सूरि भी अन्य के पास अपना पाप प्रकट करें और उन्होंने दिया हुआ तप विधिवत् अंगीकार करते हैं ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(गच्छाचार)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
Page 5