________________
आगम सूत्र २५, पयन्नासूत्र-२, 'आतुरप्रत्याख्यान'
सूत्रसूत्र - ११
हे भगवंत ! मैं अनशन करने की ईच्छा रखता हूँ | पाप व्यवहार को प्रतिक्रमता हूँ । भूतकाल के (पाप को) भावि में होनेवाले (पाप) को, वर्तमान के पाप को, किए हुए पाप को, करवाए हुए पाप को और अनुमोदन किए गए पाप का प्रतिक्रमण करता हूँ, मिथ्यात्व का, अविरति परिणाम, कषाय और पाप व्यापार का प्रतिक्रमण करता हूँ।
मिथ्यादर्शन के परिणाम के बारे में, इस लोक के बारे में, परलोक के बारे में, सचित्त के बारे में, अचित्त के बारे में, पाँच इन्द्रिय के विषय के बारे में, अज्ञान अच्छा है ऐसी चिंतवना किये हुए...
झूठे आचार का चितवन किये हुए, बौद्धादिक कुदर्शन अच्छा ऐसा चिंतवन किये हुए, क्रोध, मान, माया और लोभ, राग, द्वेष और मोह के लिए चिंतवन किये हुए, (पुद्गल पदार्थ और यश आदि की) ईच्छा के लिए चिंतन हए, मिथ्यादृष्टिपन का चिंतवन किये हए, मूर्छा के लिए चिंतवे हए, संशय से, या अन्यमत की वांछा से चितवन किये हुए, घर के लिए चिंतवे हुए, दूसरों की चीजें पाने की वांछा से चिंतवन किये हुए, भूख-प्यास से चिंतवे हुए,
सामान्य मार्ग में या विषम मार्ग में चलने के बाद भी चिंतवे हुए, निंद्रा में चिंतवे हुए, नियाणा चिंतवे हुए, स्नेहवश से, विकार के या चित्त के डहोणाण से चिंतवे हुए, क्लेश, मामूली युद्ध के लिए चिंतवे हुए या महायुद्ध के लिए चिंतवन किये हए. संग चिंतवे हए, संग्रह चिंतवे हए. राजसभा में न्याय के लिए चिंतवे हए,
खरीद करने के लिए और बेचने के लिए चिंतवे हुए, अनर्थ दंड चिंतवे हुए, उपयोग या अनुपयोग से चिंतवे हुए, खुद पर कर्जा हो उसके लिए चिंतवे हुए, वैर-तर्क, वितर्क, हिंसा, हास्य के लिए, अतिहास्य के लिए, अति रोष करके या कठोर पाप-कर्म चिंतवन किये हुए, भय चिंतवे हुए, रूप चिंतवे हुए, अपनी प्रशंसा दूसरों की निंदा, या दूसरों की गर्दा चिंतवे हुए, धनादिक परिग्रह पाने को चिंतवे हुए, आरम्भ चिंतवे हुए, विषय के तीव्र अभिलाष से संरभ चिंतवे हुए, पाप कार्य अनुमोदन समान चिंतवे हुए, जीवहिंसा के साधन को पाने को चिंतवे हुए,
असमाधि में मरना चिंतवे हुए, गहरे कर्म-उदय द्वारा चिंतवे हुए, ऋषि के अभिमान से या सुख के अभिमान से चिंतवे हुए, अविरति अच्छी ऐसा चिंतवे हुए, संसार सुख के अभिलाष सहित मरण चितवन किये हुए...
दिवस सम्बन्धी या रात सम्बन्धी सोते या जागते किसी भी अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार या अनाचार लगा हो उसका मुझे मिच्छामि दुक्कडम् हो । सूत्र-१२
जिनो में वृषभ समान वर्द्धमानस्वामी को और गणधर सहित बाकी सभी तीर्थंकर को मैं नमस्कार करता हूँ सूत्र - १३
इस प्रकार से मैं सभी प्राणीओं के आरम्भ, अलिक (असत्य) वचन, सर्व अदत्तादान (चोरी), मैथुन और परिग्रह का पच्चखाण करता हूँ। सूत्र - १४
मुझे सभी जीव के साथ मैत्रीभाव है । किसी के साथ मुझे वैर नहीं है, वांच्छा का त्याग करके मैं समाधि रखता हूँ। सूत्र - १५
सभी प्रकार की आहार विधि का, संज्ञाओं का, गारवों का, कषायों का और सभी ममता का त्याग करता हूँ, सब को खमाता हूँ।
इस
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (आतुरप्रत्याख्यान) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
Page 6