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आगम सूत्र २१,उपांगसूत्र-१०, 'पुष्पिका'
अध्ययन/सूत्र
तत्पश्चात् वे बहुत से आम के बगीचे यावत् फूलों के बगीचे अनुक्रम से संरक्षण, संगोपन और संवर्धन किये जाने से दर्शनीय बगीचे बन गये । श्यामल, श्यामल आभावाले यावत् रमणीय महामेघों के समूह के सदृश होकर पत्र, पुष्प, फल एवं अपनी हरी-भरी श्री से अतीव-अतीव शोभायमान हो गये। - इसके बाद पुनः उस सोमिल ब्राह्मण को किसी अन्य समय मध्यरात्रि में कौटुम्बिक स्थिति का विचार करते हए इस प्रकार का यह आन्तरिक यावत् मनःसंकल्प उत्पन्न हआ-वाराणसी नगरी वासी मैं सोमिल ब्राह्मण अत्यन्त शुद्ध-कुल में उत्पन्न हुआ । मैंने व्रतों का पालन किया, वेदों का अध्ययन आदि किया यावत् यूप स्थापित किये और इसके बाद वाराणसी नगरी के बाहर बहुत से आम के बगीचे यावत् फूलों के बगीचे लगवाए।
__ लेकिन अब मुझे यह उचित है कि कल यावत् तेज सहित सूर्य के प्रकाशित होने पर बहुत से लोहे के कड़ाह, कुड़छी एवं तापसों के योग्य तांबे के पात्रों-घड़वाकर तथा विपुल मात्रा में अशन-पान-खादिम-स्वादिम भोजन बनवाकर मित्रों, जातिबांधवों, स्वजनों, सम्बन्धियों और परिचित जनों को आमंत्रित कर उन का विपुल अशन-पान-खादिम-स्वादिम, वस्त्र, गंध, माला एवं अलंकारों से सत्कार-सन्मान करके उन्हीं के सामने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपकर तथा मित्रों-जाति-बंधुओं आदि परिचितों और ज्येष्ठपुत्र से पूछकर उन बहुत से लोहे के कडाहे, कुडछी आदि तापसों के पात्र लेकर गंगातटवासी वानप्रस्थ तापस हैं, जैसे कि
होत्रिक, पोत्रिक, कौत्रिक, यात्रिक, श्राद्धकिन, स्थालकिन, हम्बउटू, दन्तोदूखलिक, उन्मज्जक, समज्जक, निमज्जक, संप्रक्षालक, दक्षिणकूल वासी, उत्तरकूल वासी, शंखध्मा, कूलमा, मृगलब्धक, हस्तीतापस, उद्दण्डक, दिशाप्रोक्षिक, वल्कवासी, बिलवासी, जलवासी, वृक्षमूलिक, जलभक्षी, वायुभक्षी, शैवालभक्षी, मूलाहारी, कंदाहारी, त्वचाहारी, पत्राहारी, पुष्पाहारी, बीजाहारी, विनष्ट कन्द, मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प, फल को खानेवाले, जलाभिषेक से शरीर कठिन-बनानेवाले हैं तथा आतापना और पंचाग्नि ताप से अपनी देह को अंगारपक्व और कंदुपक्व जैसी बनाते हुए समय यापन करते हैं।
इन तापसोंमें से मैं दिशाप्रोक्षिक तापसोंमें दिशाप्रोक्षिक रूप से प्रव्रजित होऊ और इस प्रकार का अभिग्रह अंगीकार करूँगा- यावज्जीवन के लिए निरंतर षष्ठ-षष्ठभक्त पूर्वक दिशा चक्रवाल तपस्या करता हुआ सूर्य के अभिमुख भुजाएं उठाकर आतापनाभूमि में आतापना लूँगा ।' संकल्प करके यावत् कल जाज्वल्यमान सूर्य के प्रकाशित होने पर बहुत से लोह-कड़ाहा आदि को लेकर यावत् दिशाप्रोक्षिक तापस के रूप में प्रव्रजित हो गया। प्रव्रजित होने के साथ अभिग्रह अंगीकार करके प्रथम षष्ठक्षपण तप अंगीकार करके विचरने लगा।
तत्पश्चात् ऋषि सोमिल ब्राह्मण प्रथम षष्ठक्षपण के पारणे के दिन आतापना भूमि से नीचे ऊतरे । फिर उसने वल्कल वस्त्र पहने और जहाँ अपनी कुटियाँ थी, वहाँ आये । वहाँ से-किढिण बांस की छबड़ी और कावड़ को लिया, पूर्व दिशा का पूजन किया और कहा-हे पूर्व दिशा के लोकपाल सोम महाराज ! प्रस्थान में प्रस्थित हुए मुझ सोमिल ब्रह्मर्षी की रक्षा करें ओर यहाँ जो भी कन्द, मूल, छाल, पत्ते, पुष्प, फूल, बीज और हरी वनस्पतियाँ हैं, उन्हें लेने की आज्ञा दें।' यों कहकर सोमिल ब्रह्मर्षी पूर्व दिशा की ओर गया और वहाँ जो भी कन्द, मूल, यावत् हरी वनस्पति आदि थी उन्हें ग्रहण किया और कावड़ में रखी, वांस की छबड़ी में भर लिया । फिर दर्भ, कुश तथा वृक्ष की शाखाओं को मोड़कर तोड़े हुए पत्ते और समिधाकाष्ठ लिए। अपनी कुटियाँ पे लाये । वेदिका का प्रमार्जन किया, उसे लीपकर शुद्ध किया। तदनन्तर डाभ और कलश हाथ में लेकर गंगा महानदी आए और उसके जल से देह शुद्ध की । अपनी देह पर पानी सींचा और आचमन आदि करके स्वच्छ और परम शुचिभूत होकर देव और पितरों संबंधी कार्य सम्पन्न करके डाभ सहित कलश को हाथ में लिए गंगा महानदी के बाहर नीकले । कुटियाँ में आकर डाभ, कुश और बालू से वेदी का निर्माण किया, सर और अरणि तैयार की । अग्नि सुलगाई । तब उसमें समिधा डालकर और अधिक प्रज्वलित की और फिर अग्नि की दाहिनी ओर ये सात वस्तुएं रखींसूत्र-६
सकथ वल्कल, स्थान, शैयाभाण्ड, कमण्डलु, लकड़ी का डंडा और अपना शरीर । फिर मधु, घी और
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (पुष्पिका) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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