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आगम सूत्र २१,उपांगसूत्र - १०, 'पुष्पिका'
अध्ययन-४-बहुपुत्रिका
भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाणप्राप्त भगवान महावीर ने पुष्पिका के तृतीय अध्ययन का यह भाव निरूपण किया है तो भदन्त ! चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ?
जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था । गुणशिलक चैत्य था । राजा श्रेणिक था । स्वामी का पदार्पण हुआ । परिषद् नीकली । उस काल और उस समय में सौधर्मकल्प के बहुपुत्रिक विमान की सुधर्मासभा में बहुपुत्रिका देवी बहुपुत्रिक सिंहासन पर ४००० सामानिक देवियों तथा ४००० महत्तरिका देवियों के साथ सूर्याभदेव के समान नानाविध दिव्य भोगों को भोगती हुई विचरण कर रही थी ।
उसने अपने विपुल अवधिज्ञान से इस केवलकल्प जम्बूद्वीप को देखा और भगवान महावीर को देखा । सूर्याभ देव के समान यावत् नमस्कार करके अपने उत्तम सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठ गई । फिर सूर्याभदेव के समान उसने अपने आभियोगिक देवों को बुलाया और उन्हें सुस्वरा घंटा बजाने की आज्ञा दी । देवदेवियों को भगवान के दर्शनार्थ चलने की सूचना दी । पुनः आभियोगिक देवों को बुलाया और विमान की विकुर्वणा करने की आज्ञा दी । वह यान - विमान १००० योजन विस्तीर्ण था । सूर्याभदेव के समान वह अपनी समस्त ऋद्धिवैभव के साथ यावत् उत्तर दिशा के निर्याणमार्ग से नीकलकर १००० योजन ऊंचे वैक्रिय शरीर को बनाकर भगवान के समवसरण में उपस्थित हुई । भगवान ने धर्मदेशना दी ।
पश्चात् उस बहुपुत्रिका देवी ने अपनी दाहिनी भुजा पसारी - १०८ देवकुमारों की ओर बायीं भुजा फैलाकर १०८ देवकुमा-रिकाओं की विकुर्वणा की । इसके बाद बहुत से दारक -दारिकाओं तथा डिम्भक-डिम्भिकाओं की विकुर्वणा की तथा सुर्याभ देव के समान नाट्य-विधियों को दिखाकर वापिस लौट गई।
गौतम स्वामी ने भगवान महावीर को वंदन - नमस्कार किया और प्रश्न किया- भगवन् ! उस बहुपुत्रिका देवी की वह दिव्य देवऋद्धि, द्युति और देवानुभाव कहाँ गया ? गौतम ! वह देव ऋद्धि आदि उसी के शरीर से नीकली थी और उसी के शरीर में समा गई ।
सूत्र
अध्ययन / सूत्र
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गौतमस्वामी ने पुनः पूछा- भदन्त ! उस बहुपुत्रिका देवी को वह दिव्य देव ऋद्धि आदि कैसे मिली, कैसे उस के उपभोग में आई ? गौतम ! उस काल और उस समय वाराणसी नगरी थी । आम्रशालवन चैत्य था । भद्र सार्थवाह रहता था, जो धन-धान्यादि से समृद्ध यावत् दूसरों से अपरिभूत था । भद्र सार्थवाह की पत्नी सुभद्रा थी । वह अतीव सुकुमाल अंगोपांगवाली थी, रूपवती थी । किन्तु वन्ध्या होने से उसने एक भी सन्तान को जन्म नहीं दिया । वह केवल जानु और कूर्पर की माता थी । किसी एक समय मध्यरात्रि में पारिवारिक स्थिति का विचार करते सुभद्रा को इस प्रकार का मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ- मैं भद्र सार्थवाह के साथ विपुल मानवीय भोगों को भोगती हुई समय व्यतीत कर रही हूँ, किन्तु आज तक मैंने एक भी बालक या बालिका का प्रसव नहीं किया है । वे माताएं धन्य हैं यावत् पुण्यशालिनी हैं, उन माताओं ने अपने मनुष्यजन्म और जीवन का फल भलीभाँति प्राप्त किया है, जो अपनी निज की कुक्षि से उत्पन्न, स्तन के दूध के लोभी, मन को लुभानेवाली वाणी का उच्चारण करनेवाली, तोतली बोली बोलनेवाली, स्तन मूल और कांख के अंतराल में अभिसरण करनेवाली सन्तान को दूध पिलाती हैं । उसे गोद में बिठलाता है, मधुर-मधुर संलापों से अपना मनोरंजन करती हैं । लेकिन मैं ऐसी भाग्यहनी, यहीन हूँ कि संतान सम्बन्धी एक भी सुख मुझे प्राप्त नहीं है । इस प्रकार के विचारों से निरुत्साह-होकर यावत् आर्त्तध्यान करने लगी ।
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उस काल और उस समय में ईर्यासमिति यावत् उच्चारण- प्रस्रवण- श्लेष्म सिंघाणपरिष्ठापना - समिति से समित, मनोगुप्ति, यावत् कायगुप्ति से युक्त, इन्द्रियों का गोपन करनेवाली, गुप्त ब्रह्मचारिणी, बहुश्रुता, शिष्याओं के बहुत बड़े परिवारवाली सुव्रता आर्या विहार करती हुई वाराणसी नगरी आई । कल्पानुसार यथायोग्य अवग्रह आज्ञा लेकर संयम और तप से आत्मा को परिशोधित करती हुई विचरने लगी ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (पुष्पिका)" आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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