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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'
वक्षस्कार/सूत्र
माता के शंगार, शोभा, सज्जा आदि विलोकन में उपयोगी, प्रयोजनीय दर्पण हाथ में लिये वे भगवान् तीर्थंकर एवं उनकी माता के पूर्व में आगान, परिगान करने लगती हैं । उस काल, उस समय दक्षिण रुचककूट-निवासिनी आठ दिक्कुमारिकाएं यावत् विहरती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- समाहारा, सुप्रदत्ता, सुप्रबुद्धा, यशोधरा, लक्ष्मीवती, शेषवती, चित्रगुप्ता तथा वसुन्धरा । सूत्र- २२२, २२३
वे भगवान् तीर्थंकर की माता से कहती हैं-'आप भयभीत न हों ।' यों कहकर वे भगवान् तीर्थंकर एवं उनकी माता के स्नपन में प्रयोजनीय सजल कलश हाथ में लिए दक्षिण में आगान, परिगान करने लगती हैं । उस काल, उस समय पश्चिम रूचक कूट-निवासिनी आठ दिक्कुमारिकाएं हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं- इलादेवी, सुरादेवी, पृथिवी, पद्मावती, एकनासा, नवमिका, भद्रा तथा सीता। सूत्र - २२४, २२५
वे भगवान् तीर्थंकर की माता को सम्बोधित कर कहती हैं-'आप भयभीत न हो।' यों कहकर वे हाथों में तालवृन्त-लिये हुए आगान, परिगान करती हैं । उस काल, उस समय उत्तर रुचककूट-निवासिनी आठ दिक्कुमारिकाएं हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं- अलंबुसा, मिश्रकेशी, पुण्डरीका, वारुणी, हासा, सर्वप्रभा, श्री तथा ह्री। सूत्र - २२६
वे भगवान् तीर्थंकर तथा उनकी माता को प्रणाम कर उनके उत्तर में चँवर हाथ में लिए आगान-परिगान करती हैं । उस काल, उस समय रुचककूट के मस्तक पर चारों विदिशाओं में निवास करने वाली चार दिक्कुमारिकाएं हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं-चित्रा, चित्रकनका, श्वेता तथा सौदामिनी । वे आकर तीर्थंकर तथा उनकी माता के चारों विदिशाओं में अपने हाथों में दीपक लिये आगान-परिगान करती हैं । उस काल, उस समय मध्य रुचककूट पर निवास करनेवाली चार दिक्कुमारिकाएं हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं-रूपा, रूपासिका, सुरूपा तथा रूपकावती । वे उपस्थित होकर तीर्थंकर के नाभिनाल को चार अंगुल छोड़कर काटती हैं । जमीनमें गड्ढा खोदती हैं नाभि-नाल को उनमें गाड़ देती हैं, उस गड्ढे को रत्नों से, हीरों से भर देती हैं । गड्ढा भरकर मिट्टी जमा देती हैं, उन कदलीगृहों के बीचमें तीन चतुःशालाओं-की तथा उन भवनों के बीचोंबीच तीन सिंहासनो की विकुर्वणा करती हैं।
फिर वे मध्यरुचकवासिनी महत्तरा दिक्कुमारिकाएं भगवान् तीर्थंकर तथा उसकी माता के पास आती हैं। तीर्थंकर को अपनी हथेलियों के संपुट द्वारा उठाती हैं और तीर्थंकर की माता को भुजाओं द्वारा उठाती हैं । दक्षिणदिग्वर्ती कदलीगृह में तीर्थंकर एवं उनकी माता को सिंहासन पर बिठाती हैं । उनके शरीर पर शतपाक एवं सहस्र पाक तैल द्वारा अभ्यंगन करती हैं । फिर सुगन्धित गन्धाटक से-तैयार किये गये उबटन से-तैल की चिकनाई दूर करती हैं । वे भगवान् तीर्थंकर को पूर्वदिशावर्ती कदलीगृह में लाकर तीर्थंकर एवं उनकी माता को सिंहासन पर बिठाती हैं । गन्धोदक, पुष्पोदक तथा शुद्ध जल के द्वारा स्नान कराती हैं | सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित करती हैं । तत्पश्चात् भगवान् तीर्थंकर और उनकी माता को उत्तरदिशावर्ती कदलीगृह में लाती हैं । उन्हें सिंहासन पर बिठाकर अपने आभियोगिक देवों को बुलाकर कहती हैं देवानुप्रियों ! चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत से गोशीर्षचन्दन-काष्ठ लाओ।'
वे आभियोगिक देव हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं, शीघ्र ही चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत से ताजा गोशीर्ष चन्दन ले आते हैं । तब वे मध्य रुचकनिवासिनी दिक्कुमारिकाएं शरक, अग्नि-उत्पादक काष्ठ-विशेष तैयार करती हैं । उसके साथ अरणि काष्ठ को संयोजित करती हैं। अग्नि उत्पन्न करती हैं । उद्दीप्त करती हैं । उसमें गोशीर्ष चन्दन के टुकडे डालती हैं | अग्नि को प्रज्वलित कर उसमें समिधा डालती हैं, हवन करती हैं, भूतिकर्म करती हैं-वे डाकिनी, शाकिनी आदि से, दृष्टिदोष रक्षा हेतु भगवान् तीर्थंकर तथा उनकी माता के भस्म की पोटलियाँ बाँधती हैं। फिर नानाविध मणि-रत्नांकित दो पाषाण-गोलक लेकर वे भगवान् तीर्थंकर के कर्णमूल में उन्हें परस्पर ताडित कर
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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