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________________ आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र- ७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' वक्षस्कार / सूत्र वृक्षों की ज्यों हों, जो गर्त आदि लांघने में, कूदने में, तेज चलने में, प्रमर्दन से कड़ी वस्तु को चूर-चूर कर डालने में सक्षम हों, जो छेक, दक्ष, प्रष्ठ, कुशल, मेघावी, निपुण, ऐसा कर्मकर लकड़ा खजूर के पत्तों से बनी बड़ी झाड़ू को, दण्डयुक्त लेकर राजमहल के आंग, राजान्तःपुर, देव मन्दिर, सभा, प्रपा, जलस्थान, आराम, उद्यान, बाग को ओर से झाड़ कर साफ कर देता है, उसी प्रकार वे दिक्कुमारियाँ संवर्तक वायु द्वारा तिनके, पत्ते, लकड़ियाँ, कचरा, अशुचि, अचोक्ष, पूतिक, दुर्गन्धयुक्त पदार्थों को उठाकर, परिमण्डल से बाहर एकान्त में डाल देती हैं । फिर वे दिक्कुमारिकाएं भगवान् तीर्थंकर तथा उनकी माता के पास आती । उनसे न अधिक समीप तथा न अधिक दूर अवस्थित हो आगान और परिगान करती हैं । सूत्र - २१५ उस काल, उस समय, ऊर्ध्वलोकवास्तव्या-आठ दिक्कुमारिकाओं के, जो अपने कूटों पर, अपने भवनों में, अपने उत्तम प्रासादों में अपने चार हजार सामानिक देवों, यावत् अनेक भवनपति एवं वानव्यन्तर देव - देवियों से संपरिवृत्त, नृत्य, गीत एवं तुमुल वाद्य-ध्वनि के बीच विपुल सुखोपभोग में अभिरत होती हैं । सूत्र - २१६ यह दिक्कुमारिकाएं है- मेघंकरा, मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी, सुवत्सा, वत्समित्रा, वारिषेणा तथा बलाहका । सूत्र - २१७ तब उन देवी के आसन चलित होते हैं, शेष पूर्ववत् । वे दिक्कुमारिकाएं भगवान् तीर्थंकर की माता से कहती हैं- देवानुप्रिये ! हम उर्ध्वलोकवासिनी दिक्कुमारिकाएं भगवान् का जन्म महोत्सव मनायेंगी । अतः आप भयभीत मत होना । यों कहकर वे ईशान कोण में चली जाती हैं । यावत् वे आकाश में बादलों की विकुर्वणा करती हैं, वे (बादल) शीघ्र ही गरजते हैं, उनमें बिजलियाँ चमकती हैं तथा वे तीर्थंकर जन्म-भवन के चारों ओर योजनपरिमित परिमंडल मिट्टी को आसिक्त, शुष्क रखते हुए मन्द गति से, धूल, मिट्टी जम जाए, इतने से धीमे वेग से उत्तम स्पर्शयुक्त दिव्य सुगन्धयुक्त झिरमिर झिरमिर जल बरसाते हैं । उसमें धूलनिहत, नष्ट, भ्रष्ट, प्रशान्त तथा उपशान्त हो जाती हैं । ऐसा कर वे बादल शीघ्र ही उपरत हो जाते हैं । फिर वे ऊर्ध्वलोकवास्तव्या आठ दिक्कुमारिकाएं पुष्पों के बादलों की विकुर्वणा करती हैं । उन विकुर्वित फूलों के बादल जोर-जोर से गरजते हैं, उसी प्रकार, कमल, वेला, गुलाब आदि देदीप्यमान, पंचरंगे, वृत्तसहित फूलों की इतनी विपुल वृष्टि करते हैं कि उनका घुटने-घुटने तक ऊंचा ढेर हो जाता है । फिर वे काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान तथा धूप की गमगमाती महक से वहाँ के वातावरण को बड़ा मनोज्ञ, उत्कृष्ट सुरभिमय बना देती है । सुगंधित धुएं की प्रचुरता से वहाँ गोल-गोल धूममय छल्ले से बनने लगते हैं । यों वे दिक्कुमारिकाएं उस भूभाग को सुरवर-के अभिगमन योग्य बना देती हैं। ऐसा कर वे भगवान् तीर्थंकर एवं उनकी माँ के पास आती हैं । वहाँ आकर आगान, परिगान करती हैं। सूत्र - २१८, २१९ उस काल, उस समय पूर्वदिग्वर्ती रुचककूट-निवासिनी आठ दिक्कुमारिकाएं अपने-अपने कूटों पर सुखोपभोग करती हुई विहार करती हैं। उनके नाम इस प्रकार है- नन्दोत्तरा, नन्दा, आनन्दा, नन्दिवर्धना, विजया, वैजयन्ती, जयन्ती तथा अपराजिता । सूत्र - २२०, २२१ अवशिष्ट वर्णन पूर्ववत् है । देवानुप्रिये ! पूर्वदिशावर्ती रुचककूट निवासिनी हम आठ दिशाकुमारिकाएं भगवान् तीर्थंकर का जन्म महोत्सव मनायेंगी । अतः आप भयभीत मत होना ।' यों कहकर तीर्थंकर तथा उनकी मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति)" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद" Page 75
SR No.034685
Book TitleAgam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 18, & agam_jambudwipapragnapti
File Size3 MB
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