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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'
वक्षस्कार/सूत्र सुन्दर है । यावत् बहुविध पंचरंगी मणियों से, तृणों से सुशोभित है। कृष्ण आदि उनके अपने-अपने विशेष वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श तथा शब्द हैं । वहाँ पुष्करिणी, पर्वत, मंडप, पृथ्वी-शिलापट्ट हैं । वहाँ अनेक वाणव्यन्तर देव एवं देवियाँ आश्रय लेते हैं, शयन करते हैं, खड़े होते हैं, बैठते हैं, त्वग्वर्तन करते हैं, रमण करते हैं, मनोरंजन करते हैं, क्रीड़ा करते हैं, सुरत-क्रिया करते हैं । यों वे अपने पूर्व आचरित शुभ, कल्याणकर विशेष सुखों का उपभोग करते हैं। उस जगती के ऊपर पद्मवरवेदिका के भीतर एक विशाल वनखंड है । वह कुछ कम दो योजन चौड़ा है । उस की परिधि वेदिका जितनी है । वह कृष्ण यावत् तृणों के शब्द से रहित है । सूत्र-७
भगवन् ! जम्बूद्वीप के कितने द्वार हैं ? गौतम ! चार द्वार हैं-विजय, वैजयन्त, जयन्त तथा अपराजित । सूत्र-८
__ भगवन् ! जम्बूद्वीप का विजय द्वार कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप स्थित मन्दर पर्वत की पूर्व दिशा में ४५ हजार योजन आगे जाने पर जम्बूद्वीप के पूर्व के अंतमें तथा लवणसमुद्र के पूर्वार्ध के पश्चिम में सीता महानदी पर जम्बूद्वीप का विजय द्वार है । वह आठ योजन ऊंचा तथा चार योजन चौड़ा है । उसका प्रवेश-चार योजन का है। वह द्वार श्वेत है । उस की स्तूपिका, उत्तमस्वर्ण की है । द्वार एवं राजधानी का वर्णन जीवाभिगमसूत्र समान जानना सूत्र-९
___ जम्बूद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अबाधित अन्तर कितना है ? सूत्र-१०
गौतम ! वह ७९०५२ योजन एवं कुछ कम आधे योजन का है । सूत्र - ११
भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भरत नामक वर्ष-क्षेत्र कहाँ है ? गौतम ! चुल्ल हिमवंत पर्वत के दक्षिण में, दक्षिणवर्ती लवणसमुद्र के उत्तर में, पूर्ववर्ती लवणसमुद्र के पश्चिम में, पश्चिमवर्ती लवणसमुद्र के पूर्व में है। इसमें स्थाणुओं, काँटों, ऊंची-नीची भूमि, दुर्गमस्थानों, पर्वतों, प्रपातों, अवझरों, निर्झरों, गड्ढों, गुफाओं, नदियों, द्रहों, वृक्षों, गुच्छों, गुल्मों, लताओं, विस्तीर्ण वेलों, वनों, वनैले हिंसक पशुओं, तृणों, तस्करों, डिम्बों, विप्लवों, डमरों, दुर्भिक्ष, दुष्काल, पाखण्ड, कृपणों, याचकों, ईति, मारी, कुवृष्टि, अनावृष्टि, रोगों, संक्लेशों, क्षणक्षणवर्ती संक्षोभों की अधिकता है-अधिकांशतः ऐसी स्थितियाँ हैं।
वह भरतक्षेत्र पूर्व-पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है । उत्तर में पर्यंक-संस्थान और दक्षिण में धनपृष्ठ-संस्थान संस्थित है । तीन ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है । गंगामहानदी, सिन्धुमहानदी तथा वैताढ्यपर्वत से इस भरत क्षेत्र के छह विभाग हो गए हैं । इस जम्बूद्वीप के १९० भाग करने पर भरतक्षेत्र उसका एक भाग होता है । इस प्रकार यह ५२६-६/१९ योजन चौड़ा है। भरत क्षेत्र के ठीक बीच में वैताढ्य पर्वत है, जो भरतक्षेत्र को दो भागों में विभक्त करता है । वे दो भाग दक्षिणार्ध भरत तथा उत्तरार्ध भरत हैं। सूत्र-१२
भगवन् ! जम्बूद्वीप में दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र कहाँ है ? गौतम ! वैताढ्यपर्वत के दक्षिण में, दक्षिण-लवण समुद्र के उत्तर में, पूर्व-लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिम-लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बू नामक द्वीप के अन्तर्गत है। वह पूर्व-पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है । यह अर्द्ध-चन्द्र-संस्थान संस्थित है-तीन ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श किये हए है। गंगा और सिन्ध महानदी से वह तीन भागों में विभक्त हो गया है। वह २३८-३/१९ योजन चौड़ा है । उसकी जीवा पूर्व-पश्चिम लम्बी है । वह दो ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए हैं । अपनी पश्चिमी कोटि से-वह पश्चिम-लवणसमुद्र का तथा पूर्वी कोटि से पूर्व-लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए हैं । दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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