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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'
वक्षस्कार/सूत्र
[१८] जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति उपांगसूत्र-७- हिन्दी अनुवाद
वक्षस्कार-१- 'भरतक्षेत्र'
अरिहंत भगवंतो को नमस्कार हो । उस काल, उस समय, मिथिला नामक नगरी थी । वह वैभव, सुरक्षा, समृद्धि आदि विशेषताओं से युक्त थी । मिथिला नगरी के बाहर ईशान कोण में माणिभद्र नामक चैत्य था । जितशत्रु राजा था । धारिणी पटरानी थी। तब भगवान महावीर वहाँ समवसृत हए-लोग अपने-अपने स्थानों से रवाना हुए, भगवान् ने धर्मदेशना दी। लोग वापस लौट गए। सूत्र-२
उसी समय की बात है, भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी-शिष्य इन्द्रभूति नामक अनगार-जो गौतम गोत्र में उत्पन्न थे, जिनकी ऊंचाई सात हाथ थी, समचतुरस्र संस्थानसंस्थित, जो वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन, कसौटी पर अंकित स्वर्ण-रेखा की आभा लिए हुए कमल के समान जो गौरवर्ण थे, जो उग्र तपस्वी, दीप्त तपस्वी, तप्त-तपस्वी, जो महा तपस्वी, प्रबल, घोर, घोर-गुण, घोर-तपस्वी, घोर-ब्रह्मचारी, उत्क्षिप्त-शरीर एवं संक्षिप्तविपुल-तेजोलेश्य थे । वे भगवान के पास आये, तीन बार प्रदक्षिणा की, वंदन-नमस्कार किया । और बोलेसूत्र-३
भगवन् ! जम्बूद्वीप कहाँ है ? कितना बड़ा है ? उस का संस्थान कैसा है ? उस का आकार-स्वरूप कैसा है? गौतम ! यह जम्बूद्वीप सब द्वीप-समुद्रों में आभ्यन्तर है- सबसे छोटा है, गोल है, तेल में तले पूए जैसा गोल है, रथ के पहिए जैसा, कमल कर्णिका जैसा, प्रतिपूर्ण चन्द्र जैसा गोल है, अपने गोल आकारमें यह एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा है । इसकी परिधि ३१६२२७ योजन, ३ कोस, १२८ धनुष और साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक है। सूत्र-४
वह एक वज्रमय जगती द्वारा सब ओर से वेष्टित है। वह जगती आठ योजन ऊंची है। मूल में बारह योजन चौडी, बीच में आठ योजन चौड़ी और ऊपर चार योजन चौड़ी है। मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त तथा ऊपर पतली है । उस का आकार गाय की पूँछ जैसा है । यह सर्व रत्नमय, स्वच्छ, सुकोमल, चिकनी, घुटी हुई सी-तरासी हई-सी, रजरहित, मैल-रहित, कर्दम-रहित तथा अव्याहत प्रकाशवाली है । वह प्रभा, कान्ति तथा उद्योत से युक्त है, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप, मनोज्ञ तथा प्रतिरूप है । उस जगती के चारों ओर एक जालीदार गवाक्ष है । वह आधा योजन ऊंचा तथा ५०० धनुष चौड़ा है। सर्व-रत्नमय, स्वच्छ यावत् अभिरूप और प्रतिरूप है।
उस जगती के बीचोंबीच एक महती पद्मवरवेदिका है । वह आधा योजन ऊंची और पाँच सौ धनुष चौड़ी है। उसकी परिधि जगती जितनी है । वह स्वच्छ एवं सुन्दर है । पद्मवरवेदिका का वर्णन जैसा जीवा जीवाभिगमसूत्र में आया है, वैसा ही यहाँ समझ लेना । वह ध्रुव, नियत, शाश्वत (अक्षय, अव्यय, अवस्थित) तथा नित्य है। सूत्र-५
उस जगती के ऊपर तथा पद्मवरवेदिका के बाहर एक विशाल वन-खण्ड है । वह कुछ कम दो योजन चौड़ा है। उसकी परिधि जगती के तुल्य है । उसका वर्णन पूर्वोक्त आगमों से जान लेना चाहिए। सूत्र-६
उस वन-खंड में एक अत्यन्त समतल रमणीय भूमिभाग है । वह आलिंग-पुष्कर-धर्म-पुट, समतल और
मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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