SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' वक्षस्कार/सूत्र पर स्वस्तिक, श्रीवत्स आदि आठ-आठ मंगल-द्रव्य स्थापित हैं । काले चँवरों की ध्वजाएं यावत् तथा शत-सहस्रपत्रों -कमलों के ढेर के ढेर लगे हैं, जो सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ एवं सुन्दर हैं। उस गंगाप्रपातकुण्ड के ठीक बीच में गंगाद्वीप द्वीप है । आठ योजन लम्बा-चौड़ा है, उसकी परिधि कुछ अधिक पच्चीस योजन है । जल से ऊपर दो कोस ऊंचा उठा हुआ है । वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ एवं सुकोमल है। वह एक पद्मवरवेदिका तथा एक वनखण्ड द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है । गंगाद्वीप पर बहुत समतल, सुन्दर भूमिभाग है । उसके ठीक बीच में गंगादेवी का विशाल भवन है । वह एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा तथा कम एक कोस ऊंचा है । वह सैकड़ों खंभों पर अवस्थित है । उसके ठीक बीच में एक मणिपीठिका है । उस पर शय्या है परम ऋद्धिशालिनी गंगादेवी का आवास-स्थान होने से वह द्वीप गंगाद्वीप कहा जाता है, अथवा यह शाश्वत नाम है-उस गंगाप्रपातकुण्ड के दक्षिणी तोरण से गंगा महानदी आगे निकलती है । वह उत्तरार्ध भरतक्षेत्र की ओर आगे बढ़ती है तब ७००० नदियाँ उसमें आ मिलती हैं । वह उनसे आपूर्ण होकर खण्डप्रपात गुफा होती हुई, वैताढ्य पर्वत को चीरती-दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र की ओर जाती है । दक्षिणार्ध भरत के ठीक बीचमें बहती हुई पूर्व की ओर मुड़ती है। फिर १४००० नदियाँ के परिवार से युक्त जम्बूद्वीप जगती को विदीर्ण कर-पूर्वीलवणसमुद्र में मिलती है गंगा महानदी का प्रवाह-एक कोस अधिक छः योजन का विस्तार-लिये हुए है । वह आधा कोस गहरा है। तत्पश्चात् वह महानदी क्रमशः मात्रा में विस्तार में बढ़ती जाती है । जब समुद्र में मिलती है, उस समय उसकी चौड़ाई साढ़े बासठ योजन होती है, गहराई एक योजन एक कोस-होती है । वह दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं तथा वनखण्डों द्वारा संपरिवृत्त है । गंगा महानदी के अनुरूप ही सिन्धु महानदी का आयाम-विस्तार है । इतना अन्तर है-सिन्धु महानदी उस पद्मद्रह के पश्चिम दिग्वर्ती तोरण से निकलती है, पश्चिम दिशा की ओर बहती है, सिन्ध्वावर्त कूट से मुड़कर दक्षिणाभिमुख होती हुई बहती है । फिर नीचे तिमिस्रा गुफा से होती हुई वह वैताढ्य पर्वत को चीरकर पश्चिम की ओर मुड़ती है । उसमें वहाँ १४००० नदियाँ मिलती हैं । फिर वह जगती को विदीर्ण करती हुई पश्चिमी लवणसमुद्र में मिलती है । उस पद्मद्रह के उत्तरी तोरण से रोहितांशा महानदी निकलती है । वह पर्वत पर उत्तर में २७६-६/१९ योजन बहती है । घड़े के मुँह से निकलते हुए पानी की ज्यों और से शब्द करती हुई वेगपूर्वक मोतियों के हार के सदृश आकार में पर्वत-शिखर से प्रपात तक कुछ अधिक एक सौ योजन परिमित प्रवाह के रूप में प्रपात में गिरती है। रोहितांशा महानदी जहाँ गिरती है, वहाँ एक जिह्वाका है। उसका आयाम एक योजन है, विस्तार साढ़े बारह योजन है । उसका मोटापन एक कोस है । उसका आकार मगरमच्छ के खुले मुख के आकार जैसा है । वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है। रोहितांशा महानदी जहाँ गिरती है, वह रोहितांशाप्रपातकुण्ड है । उसकी लम्बाई-चौड़ाई १२० योजन है । उसकी परिधि कुछ कम १८३ योजन है। उसकी गहराई दस योजन है । उस रोहितांशाप्रपात कुण्ड के ठीक बीच में रोहितांशद्वीप है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई सोलह योजन है । उसकी परिधि कुछ अधिक पचास योजन है । वह जल से ऊपर दो कोश ऊंचा उठा हुआ है । वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ एवं सुकोमल है । उस रोहितांशाप्रपातकुण्ड के उत्तरी तोरण से रोहितांशा महानदी आगे निकलती है, हैमवत क्षेत्र की ओर बढ़ती है । १४००० नदियाँ उसमें मिलती है । उनसे आपूर्ण होती हुई वह शब्दापाती वृत्तवैताढ्य पर्वत के आधा योजन दूर रहने पर पश्चिम की ओर मुड़ती है । वह हैमवत क्षेत्र को दो भागों में विभक्त करती हुई आगे बढ़ती है । तत्पश्चात् २८००० नदियों के परिवार सहित-नीचे की ओर जगती को विदीर्ण करती हुई-पश्चिम-दिग्वर्ती लवणसमुद्र में मिल जाती है । रोहितांशा महानदी जहाँ से निकलती है, वहाँ उसका विस्तार साढ़े बारह योजन है । उसकी गहराई एक कोश है । तत्पश्चात् वह क्रमशः बढ़ती जाती है । मुख-मूल में उसका विस्तार १२५ योजन होता है, गहराई अढ़ाई योजन होती है । वह अपने दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं तथा दो वनखण्डों से संपरिवत्त है। सूत्र-१३० भगवन् ! चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत के कितने कूट हैं ? गौतम ! ग्यारह, सिद्धायतन, चुल्लहिमवान्, मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 52
SR No.034685
Book TitleAgam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 18, & agam_jambudwipapragnapti
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy