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________________ आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' वक्षस्कार/सूत्र जल्दी-जल्दी हमारे देश पर चढ़ा आ रहा है । आप उसे वहाँ से हटा दीजिए, जिससे वह हमारे देश पर आक्रमण नहीं कर सके । तब मेघमुख नागकुमार देवों ने कहा-तुम्हारे देश पर आक्रमण करनेवाला महाऋद्धिशाली, परम द्युतिमान, परम सौख्ययुक्त, चातुरत्न चक्रवर्ती भरत राजा है । उसे न कोई देव, न कोई किंपुरुष, न कोई महोरग तथा न कोई गन्धर्व ही रोक सकता है, न बाधा उत्पन्न कर सकता है । न उसे शस्त्र, अग्नि तथा मन्त्र प्रयोग द्वारा ही उपद्रुत किया जा सकता है । फिर भी तुम्हारे अभीष्ट हेतु उपसर्ग करेंगे । उन्होंने वैक्रिय समुद्घात द्वारा आत्मप्रदेशों को देह से बाहर निकाला । गृहीत पुद्गलों के सहारे बादलों की विकुर्वणा की । जहाँ राजा भरत की छावनी थी, वहाँ आये । बादल शीघ्र ही धीमे-धीमे गरजने लगे । बिजलियाँ चमकने लगीं। पानी बरसाने लगे। सात दिन-रात तक युग, मूसल एवं मुष्टिका के सदृश मोटी धाराओं से पानी बरसता रहा। सूत्र-८५ राजा भरत ने उस वर्षा को देखा । अपने चर्मरत्न का स्पर्श किया । वह चर्मरत्न कुछ अधिक बारह योजन तिरछा विस्तीर्ण हो गया- । तत्पश्चात् राजा भरत अपनी सेना सहित उस चर्मरत्न पर आरूढ़ हो गया । छत्ररत्न छुआ, वह छत्ररत्न निन्यानवें हजार स्वर्ण-निर्मित शलाकाओं से-ताड़ियों से परिमण्डित था । बहुमूल्य था, अयोध्या था, निव्रण था, सुप्रशस्त, विशिष्ट, मनोहर एवं स्वर्णमय सुदृढ़ दण्ड से युक्त था । उसका आकार मृदु था । वह बस्ति-प्रदेश में अनेक शलाकाओं से युक्त था । पिंजरे जैसा प्रतीत होता था । उस पर विविध प्रकार की चित्रकारी थी । उस पर मणि, मोती, मूंगे, तपाये हुए स्वर्ण तथा रत्नों द्वारा पूर्ण कलश आदि मांगलिक-वस्तुओं के पंचरंगे उज्ज्वल आकार बने थे । रत्नों की किरणों के सदृश रंगरचना में निपुण पुरुषों द्वारा वह सुन्दर रूप में रंगा हुआ था। उस पर राजलक्ष्मी का चिह्न अंकित था । अर्जुन स्वर्ण द्वारा उसका पृष्ठभाग आच्छादित था । उसके चार कोण परितापित स्वर्णमय पट्ट से परिवेष्टित थे । वह अत्यधिक श्री से युक्त था । उसका रूप शरद् ऋतु के निर्मल, परिपूर्ण चन्द्रमण्डल के सदृश था । उसका स्वाभाविक विस्तार राजा भरत द्वारा तिर्यक्प्रसारित-अपनी दोनों भुजाओं के विस्तार जितना था । वह कुमुद-वन सदृश धवल था । राजा भरत का मानो जंगम विमान था । सूर्य के आतप, आयु, वर्षा आदि दोषों का विनाशक था । पूर्व जन्म में आचरित तप, पुण्यकर्म के फलस्वरूप वह प्राप्त था। सूत्र-८६ वह छत्ररत्न अहत-था, ऐश्वर्य आदि अनेक गुणों का प्रदायक था । हेमन्त आदि ऋतुओं में तद्विपरीत सुखप्रद छाया देता था । छत्रों में उत्कृष्ट एवं प्रधान था । सूत्र-८७ अल्पपुण्य-पुरुषों के लिए दुर्लभ था । वह छत्ररत्न छह खण्डों के अधिपति चक्रवर्ती राजाओं के पूर्वाचरित तप के फल का एक भाग था । देवयोनि में भी अत्यन्त दुर्लभ था । उस पर फूलों की मालाएं लटकती थीं, शरद् ऋतु के धवल मेघ तथा चन्द्रमा के प्रकाश के समान भास्वर था । एक सहस्र देवों से अधिष्ठित था । राजा भरत का वह छत्ररत्न ऐसा प्रतीत होता था, मानो भूतल पर परिपूर्ण चन्द्रमण्डल हो । राजा भरत द्वारा छुए जाने पर वह छत्ररत्न कुछ अधिक बारह योजन तिरछा विस्तीर्ण हो गया- | सूत्र-८८ राजा भरत ने छत्ररत्न को अपनी सेना पर तान दिया । मणिरत्न का स्पर्श किया । उस मणिरत्न को राजा भरत ने छत्ररत्न के बस्तिभाग में स्थापित किया । राजा भरत के साथ गाथापतिरत्न था । वह अपनी अनुपम विशेषता-लिये था । शिला की ज्यों अति स्थिर चर्मरत्न पर केवल वपन मात्र द्वारा शालि, जौ, गेहूँ, मूंग, उर्द, तिल, कुलथी, षष्टिक, निष्पाव, चने, कोद्रव, कुस्तुंभरी, कंगु, वरक, रालक, धनिया, वरण, लौकी, ककड़ी, तुम्बक, बिजौरा, कटहल, आम, इमली आदि समग्र फल, सब्जी आदि पदार्थों को उत्पन्न करने में कुशल था । उस श्रेष्ठ गाथापति ने उसी दिन बोये हुए, पके हुए, साफ किये हुए सब प्रकार के धान्यों के सहस्रों कुंभ राजा भरत को मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 39
SR No.034685
Book TitleAgam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 18, & agam_jambudwipapragnapti
File Size3 MB
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