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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'
वक्षस्कार/सूत्र स्निग्ध थे, अपनी गति से दोड, मन वायु तथा गरुड़ की गति को जीतने वाला था, बहुत चपल और द्रुतगामी था । क्षमा में ऋषितुल्य था-प्रत्यक्षतः विनीत था । वह उदक, अग्नि, पत्थर, मिट्टी, कीचड़, कंकड़ों से युक्त स्थान, रेतीले स्थान, नदियों के तट, पहाड़ों की तलहटियाँ, ऊंचे-नीचे पठार, पर्वतीय गुफाएं-इन सबको लाँघने में, समर्थ था । प्रबल योद्धाओं द्वारा युद्ध में पातित-दण्ड की ज्यों शत्रु की छावनी पर अतर्कित रूप में आक्रमण करने की विशेषता से युक्त था । मार्ग में चलने से होनेवाली थकावट के बावजूद उसकी आँखों से कभी आँसू नहीं गिरते थे । उसका तालु कालेपन से रहित था । वह समुचित समय पर ही हिनहिनाहट करता था । वह जितनिद्र-था । मूत्र, पुरीष-का उत्सर्ग उचित स्थान खोजकर करता था । कष्टों में भी अखिन्न रहता था । नाक मोगरे के फूल के सदृश शुभ था । वर्ण तोते के पंख के समान सुन्दर था । देह कोमल थी। वह वास्तव में मनोहर था।
ऐसे अश्वरत्न पर आरूढ़ सेनापति सुषेण ने राजा के हाथ से असिरत्न ली । वह तलवार नीलकमल की तरह श्यामल थी । घुमाये जाने पर चन्द्रमण्डल के सदृश दिखाई देती थी । शत्रुओं का विनाश करनेवाली थी । मूठ स्वर्ण तथा रत्न से निर्मित थी। उसमें से नवमालिका के पुष्प जैसी सुगन्ध आती थी। विविध प्रकार की मणियों से निर्मित बेल आदि के चित्र थे । धार बड़ी चमकीली और तीक्ष्ण थी । लोक में वह अनुपम थी । वह बाँस, वृक्ष, भैंसे आदि के सींग, हाथी आदि के दाँत, लोह, लोहमय भारी दण्ड, उत्कृष्ट वज्र-आदि का भेदन करने में समर्थ थी। वह सर्वत्र अप्रतिहत थी-बिना किसी रुकावट के दुर्भेद्य वस्तुओं के भेदन में समर्थ थी। सूत्र-८२
वह तलवार पचास अंगुल लम्बी, सोलह अंगुल चौड़ी और मोटाई अर्ध-अंगुल प्रमाण थी। सूत्र-८३
राजा के हाथ से उत्तम तलवार को लेकर सेनापति सुषेण, आपात किरातों से भिड़ गया। उसने आपात किरातों में से अनेक प्रबल योद्धाओं को मार डाला, मथ डाला तथा घायल कर डाला। सूत्र-८४
सेनापति सुषेण द्वारा हत-मथित किये जाने पर, मेदान छोड़कर भागे हए आपात किरात बडे भीत. त्रस्त. व्यथित, पीडायुक्त, उद्विग्न होकर घबरा गये । वे अपने को निर्बल, निर्वीर्य तथा पौरुष-पराक्रम रहित अनुभव करने लगे । शत्रु-सेना का सामना करना शक्य नहीं है, यह सोचकर वे वहाँ से अनेक योजन दूर भाग गये । यों दूर जाकर वे एक स्थान पर आपस में मिले, सिन्धु महानदी आये । बालू के बिछौने तैयार किये । तेले की तपस्या की । वे अपने मुख ऊंचे किये, निर्वस्त्र हो घोर आतापना सहते हुए मेघमुख नामक नागकुमारों का, जो उनके कुल-देवता थे, मन में ध्यान करते हुए अभिरत हो गए । मेघमुख नागकुमार देवों के आसन चलित हुए । मेघमुख नागकुमार देवों ने अवधिज्ञान द्वारा आपात किरातों को देखा । उन्हें देखकर कहने लगे-जम्बूद्वीप के उत्तरार्ध भरतक्षेत्र में सिन्धु महानदी पर आपात किरात हमारा ध्यान करते हुए विद्यमान हैं । देवानुप्रियों ! यह उचित है कि हम उन आपात किरातों के समक्ष प्रकट हों।
इस प्रकार परस्पर विचार कर उन्होंने वैसा करने का निश्चय किया । वे उत्कृष्ट, तीव्र गति से, आपात किरात थे, वहाँ आये । उन्होंने छोटी-छोटी घण्टिओं सहित पंचरंगे उत्तम वस्त्र पहन रखे थे । आकाश में अधर अवस्थित होते हुए वे आपात किरातों से बोले-तुम बालू के संस्तारकों पर अवस्थित हो, यावत् हमारा-ध्यान कर रहे हो । यह देखकर हम तुम्हारे कुलदेव मेघमुख नागकुमार तुम्हारे समक्ष प्रकट हुए हैं । तुम क्या चाहते हो ? हम तुम्हारे लिए क्या करें ? मेघमुख नागकुमार देवों का यह कथन सुनकर आपात किरात अपने चित्त में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हुए, मेघमुख नागकुमार देव को हाथ जोड़े, मेघमुख नागकुमार देवों को जय-विजय शब्दों द्वारा वर्धापित किया और बोले
देवानुप्रियों ! अप्रार्थित मृत्यु का प्रार्थी यावत् लज्जा, शोभा से परिवर्जित कोई पुरुष है, जो बलपूर्वक
मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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