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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'
वक्षस्कार/सूत्र कुशल था । इक्यासी प्रकार के वास्तु-क्षेत्र का जानकार था । विधिज्ञ था । विशेषज्ञ था । विविध परम्परानुगत भवनों, भोजनशालाओं, दुर्ग-भित्तियों, वासगृहों के यथोचित रूप में निर्माण करने में निपुण था । काठ आदि के छेदन-वेधन में, गैरिक लगे धागे से रेखाएं अंकित कर नाप-जोख में कुशल था । जलगत तथा स्थलगत सुरंगों के, घटिकायन्त्र आदि के निर्माण में, परिखाओं-के खनन में शुभ समय के, इनके निर्माण के प्रशस्त के प्रशस्त एवं अप्रशस्त रूप के परिज्ञान में प्रवीण था । शब्दशास्त्र, अंकन, लेखन आदि में, वास्तुप्रदेश में सुयोग्य था । भवन निर्माणोचित भूमि में उत्पन्न फलाभिमुख बेलों, दूरफल बेलों, वृक्षों एवं उन पर छाई हुई बेलों के गुणों तथा दोषों को समझने में सक्षम था । गुणाढ्य था-सान्तन, स्वस्तिक आदि सोलह प्रकार के भवनों के निर्माण में कुशल था । शिल्पशास्त्र में प्रसिद्ध चौंसठ प्रकार के घरों की रचना में चतुर था । नन्द्यावर्त, वर्धमान, स्वस्तिक, रुचक तथा सर्वतोभद्र आदि विशेष प्रकार के गृहों, ध्वजाओं, इन्द्रादि देवप्रतिमाओं, धान्य के कोठों की रचना में, भवननिर्माणार्थ अपेक्षित काठ के उपयोग में, दुर्ग आदि निर्माण, इन सबके संचयन और सन्निर्माण में समर्थ था। सूत्र-७०
__ वह शिल्पकार अनेकानेक गुणयुक्त था । राजा भरत को अपने पूर्वाचरित तप तथा संयम के फलस्वरूप प्राप्त उस शिल्पी ने कहा-स्वामी ! मैं क्या निर्माण करूँ? सूत्र-७१
राजा के वचन के अनुरूप उसने देवकर्मविधि से-दिव्य क्षमता द्वारा मुहूर्त मात्र में सैन्यशिबिर तथा सुन्दर आवास-भवन की रचना कर दी । पौषधशाला का निर्माण किया । सूत्र-७२
तत्पश्चात् राजा भरत के पास आकर निवेदित किया कि आपके आदेशानुरूप निर्माण कार्य सम्पन्न कर दिया है। इससे आगे का वर्णन पूर्ववत है। सूत्र-७३
वह रथ पृथ्वी पर शीघ्र गति से चलनेवाला था । अनेक उत्तम लक्षण युक्त था । हिमालय पर्वत की वायुरहित कन्दराओं में संवर्धित तिनिश नामक रथनिर्माणोपयोगी वृक्षों के काठ से बना था । उसका जुआ जम्बूनद स्वर्ण से निर्मित था । आरे स्वर्णमयी ताड़ियों के थे । पुलक, वरेन्द्र, नील सासक, प्रवाल, स्फटिक, लेष्टु, चन्द्रकांत, विद्रुम रत्नों एवं मणियों से विभूषित था । प्रत्येक दिशा में बारह बारह के क्रम से उसके अड़तालीस आरे थे । दोनों तुम्ब स्वर्णमय पट्टों से दृढ़ीकृत थे, पृष्ठ-विशेष रूप से घिरी हुई, बंधी हुई, सटी हुई, नई पट्टियों से सुनिष्पन्न थी। अत्यन्त मनोज्ञ, नूतन लोहे की सांकल तथा चमड़े के रस्से से उसके अवयव बंधे थे । दोनों पहिए वासुदेव के शस्त्र रत्न-सदृश थे । जाली चन्द्रकांत, इन्द्रनील तथा शस्यक रत्नों से सुरचित और सुसज्जित थी । धुरा प्रशस्त, विस्तीर्ण तथा एकसमान थी। श्रेष्ठ नगर की ज्यों वह गुप्त था, घोड़ों के गले में डाली जाने वाली रस्सी कमनीय किरणयुक्त, लालिमामय स्वर्ण से बनी थी । उसमें स्थान-स्थान पर कवच प्रस्थापित थे । प्रहरणों से परिपूरित था । ढालों, कणकों, धनषों, पण्डलाओं, त्रिशलों, भालों, तोमरों तथा सैकड़ों बाणों से युक्त बत्तीस तणीरों से वह परिमंडित था। उस पर स्वर्ण एवं रत्नों द्वारा चित्र बने थे । उसमें हलीमुख, बगुले, हाथीदांत, चन्द्र, मुक्ता, भल्लिका, कुन्द, कुटज तथा कन्दल के पुष्प, सुन्दर फेन-राशि, मोतियों के हार और काश के सदश धवल, अपनी गति द्वारा मन एवं वायु की गति को जीतनेवाले, चपल शीघ्रगामी, चँवरों और स्वर्णमय आभूषणों से विभूषित चार घोड़े जुते थे । उस पर छत्र बना था । ध्वजाएं, घण्टियाँ तथा पताकाएं लगी थीं।
उस का सन्धि-योजन सुन्दर रूपमें निष्पादित था । सुस्थापित समर के गम्भीर गोष जैसा उसका घोष था। उस के कूर्पर-उत्तम थे । वह सुन्दर चक्रयुक्त तथा उत्कृष्ट नेमिमंडल युक्त था । जुए के दोनों किनारे बड़े सुन्दर थे। दोनों तुम्ब श्रेष्ठ वज्र रत्न से-बने थे । वह श्रेष्ठ स्वर्ण से-सुशोभित था । सुयोग्य शिल्पकारों द्वारा निर्मित था । उत्तम मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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