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________________ आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' वक्षस्कार/सूत्र कहा-आपने पूर्व दिशा में मागध तीर्थ पर्यन्त समस्त भरतक्षेत्र भली-भाँति जीत लिया है । मैं आप द्वारा जीते हुए देश का निवासी हूँ, आपका अनुज्ञावर्ती सेवक हूँ, आपका पूर्व दिशा का अन्तपाल हूँ-। अतः आप मेरे द्वारा प्रस्तुत यह प्रीतिदान-एवं हर्षपूर्वक अपहृत भेंट स्वीकार करें ।' राजा भरत ने मागध तीर्थकुमार द्वारा इस प्रकार प्रस्तुत प्रीतिदान स्वीकार किया । मागध तीर्थकुमार देव का सत्कार किया, सम्मान किया, विदा किया । फिर राजा भरत ने अपना रथ वापस मोड़ा । वह मागध तीर्थ से होता हुआ लवणसमुद्र से वापस लौटा । जहाँ उसका सैन्य था, वहाँ आकर घोड़ों को रोका, रथ को ठहराया, रथ से नीचे उतरा, स्नानघर में प्रविष्ट हुआ । स्नानादि सम्पन्न कर भोजनमण्डप में आकर सुखासन से बैठा, तेले का पारण किया । भोजनमण्डप से बाहर निकला, पूर्व की ओर मुँह किये सिंहासन पर आसीन हुआ । सिंहासनासीन होकर उसने अठारह श्रेणीप्रश्रेणी-अधिकृत पुरुषों को बुलाया । उन्हें कहा-मागधतीर्थकुमार देव को विजित कर लेने के उपलक्ष में अष्ट दिवसीय महोत्सव आयोजित करो । तत्पश्चात् शस्त्रागार में प्रतिनिष्क्रान्त हुआ | उस चक्ररत्न का अरक-हीरों से जड़ा था। आरे लाल रत्नों से युक्त थे । उसकी नेमि स्वर्णमय थी। उस का भीतरी परिधिभाग अनेक मणियों से परिगत था । वह चक्रमणियों तथा मोतियों के समूह से विभूषित था । वह मृदंग आदि बारह प्रकार के वाद्यों के घोष से युक्त था । उसमें छोटी-छोटी घण्टियाँ लगी थीं। वह दिव्य प्रभावयुक्त था, मध्याह्न के सूर्य के सदृश तेजयुक्त था, गोलाकार था, अनेक प्रकार की मणियों एवं रत्नों की घण्टियों के समूह से परिव्याप्त था । सब ऋतुओं में खिलनेवाले सुगन्धित पुष्पमालाओं से युक्त था, अन्तरिक्ष प्रतिपन्न था, गतिमान था, १००० यक्षों से संपरिवृत्त था, दिव्य वाद्यों के शब्द से गगनतल को मानो भर रहा था । उसका सुदर्शन नाम था। राजा भरत के उस प्रथम-चक्ररत्नने यों शस्त्रागार से निकलकर नैऋत्यकोण में वरदाम तीर्थ की ओर प्रयाण किया। सूत्र-६८ राजा भरत ने दिव्य चक्ररत्न को दक्षिण-पश्चिम दिशा में वरदामतीर्थ की ओर जाते हुए देखा । वह बहुत हर्षित तथा परितुष्ट हुआ । उस के कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-घोड़े, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं से परिगठित चातुरंगिणी सेना को तैयार करो, आभिषेक्य हस्तिरत्न को शीघ्र ही सुसज्ज करो । यों कहकर राजा स्नानघर में प्रविष्ट हुआ । स्नानादि सम्पन्न कर बाहर निकला | गजपति पर वह नरपति आरूढ हुआ । यावत् हजारों योद्धाओं से यह विजय परिगत था । उन्नत, उत्तम मुकुट, कुण्डल, पताका, ध्वजा तथा वैयजन्ती-चँवर, छत्र -इनकी सघनता से प्रसूत अन्धकार से आच्छन्न था । असि, क्षेपणी, खड्ग, चाप, नाराच, कणक, कल्पनी, शूल, लकुट, भिन्दिपाल, धनुष, तूणीर, शर-आदि शस्त्रों से, जो कृष्ण, नील, रक्त, पीत तथा श्वेत रंग के सैकड़ों चिह्नों से युक्त थे, व्याप्त था । भुजाओं को ठोकते हुए, सिंहनाद करते हुए योद्धा राजा भरत के साथ-साथ चल रहे थे । घोड़े हर्ष से हिनहिना रहे थे, हाथी चिंघाड़ रहे थे, लाखों रथों के चलने की ध्वनि, घोड़ों को ताड़ने हेतु प्रयुक्त चाबुकों की आवाज, भम्भा, कौरम्भ, वीणा, खरमुखी, मुकुन्द, शंखिका, परिली तथा वच्चक, परिवादिनी, दंस, बांसुरी, विपञ्ची, महती कच्छपी, सारंगी, करताल, कांस्यताल, परस्पर हस्त-ताड़न आदि से उत्पन्न विपुल ध्वनि-प्रतिध्वनि से मानो सारा जगत् आपूर्ण हो रहा था । इन सबके बीच राजा भरत अपनी चातुरंगिणी सेना तथा विभिन्न वाहनों से युक्त, सहस्र यक्षों से संपरिवृत कुबेर सदृश वैभवशाली तथा अपनी ऋद्धि से इन्द्र जैसा यशस्वी-प्रतीत होता था । वह ग्राम, आकर यावत् संबाध-इनसे सुशोभित भूमण्डल की विजय करता हुआ-उत्तम, श्रेष्ठ रत्नों को भेंट के रूप में स्वीकार करता हुआ, दिव्य चक्ररत्न का अनुगमन करता हुआ-वरदामतीर्थ था, वहाँ आया । वरदामतीर्थ से कुछ ही दूरी पर बारह योजन लम्बा, नौ योजन चौड़ा, विशिष्ट नगर के सदृश अपना सैन्य-शिबिर लगाया । उसने वर्द्धकि रत्न को बुलाया । कहा-शीघ्र ही मेरे लिए आवासस्थान तथा पौषधशाला का निर्माण करो। सूत्र-६९ वह शिल्पी आश्रम, द्रोणमुख, ग्राम, पट्टन, नगर, सैन्यशिबिर, गृह, आपण-इत्यादि की समुचित संरचना में मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 30
SR No.034685
Book TitleAgam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 18, & agam_jambudwipapragnapti
File Size3 MB
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