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आगम सूत्र १६, उपांगसूत्र-५, 'सूर्यप्रज्ञप्ति'
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प्राभृत-४ सूत्र - ३५
श्वेत की संस्थिति किस प्रकार की है ? श्वेत संस्थिति दो प्रकार की है-चंद्र-सूर्य की संस्थिति और तापक्षेत्र की संस्थिति । चन्द्र-सूर्य की संस्थिति के विषय में यह सोलह प्रतिपत्तियाँ (परमतवादी मत) हैं । -कोई कहता है कि, (१) चन्द्र-सूर्य की संस्थिति समचतुरस्र हैं । (२) विषम चतुरस्र है । (३) समचतुष्कोण है । (४) विषम चतुष्कोण है । (५) समचक्रवाल है । (६) विषम चक्रवाल है। (७) अर्द्धचक्रवाल है । (८) छत्राकार है । (९) गेहा-कार है। (१०) गहापण संस्थित है । (११) प्रासाद आकार है । (१२) गोपुराकार है । (१३) प्रेक्षागृहाकार है । (१४) वल्लभी संस्थित है । (१५) हर्म्यतल संस्थित है । (१६) सोलहवां मतवादी चन्द्र-सूर्य की संस्थिति वालाग्र-पोतिका आकार की बताते हैं । इसमें जो संस्थिति को समचतुरस्राकार की बताते हैं वह कथन नय द्वारा ज्ञातव्य है, अन्य से नहीं।
तापक्षेत्र की संस्थिति के सम्बन्ध में भी सोलह प्रतिपत्तियाँ हैं । अन्य मतवादी अपना अपना कथन इस प्रकार से बताते हैं-(१ से ८) तापक्षेत्र संस्थिति गेहाकार यावत् वालाग्रपोतिका आकार की है । (९) जंबूद्वीप की संस्थिति के समान है । (१०) भारत वर्ष की संस्थिति के समान है । (११) उद्यान आकार है । (१२) निर्याण आकार है । (१३) एकतः निषध संस्थान संस्थित है । (१४) उभयतः निषध संस्थान संस्थित है । (१५) श्चेनक पक्षी के आकार की है। (१६) श्चेनक पक्षी के पीठ के आकार की है।
भगवंत फरमाते हैं कि यह तापक्षेत्र संस्थिति उर्ध्वमुख कलंब के पुष्प के समान आकारवाली है । अंदर से संकुचित-गोल एवं अंक के मुख के समान है और बाहर से विस्तृत-पृथुल एवं स्वस्ति के मुख के समान है । उसके दोनों तरफ दो बाहाएं अवस्थित हैं । वह बाहाएं आयाम से ४५-४५ हजार योजन है । वह बाहाएं सर्वाभ्यन्तर और सर्वबाह्य हैं । इन दोनों बाहा का माप बताते हैं जो सर्वाभ्यन्तर बाहा है वह मेरु पर्वत के समीप में ९४८६ योजन एवं एक योजन के नव या दस भाग योजन परिक्षेप से कही है । मंदरपर्वत के परिक्षेप को तीन गुना करके दश से भाग करना, वह भाग परिक्षेप विशेष का प्रमाण है । जो सर्वबाह्य बाहा है वह लवण समुद्र के अन्त में ९४८६८ योजन एवं एक योजन के चार दशांश भाग से परिक्षिप्त हैं । जंबद्वीप के परिक्षेप को तीन गुना करके दश से छेद करके दश भाग घटाने से यह परिक्षेप विशेष कहा जाता है।
हे भगवन् ! यह तापक्षेत्र आयाम से कितना है ? यह तापक्षेत्र आयाम से ७८३२३ योजन एवं एक योजन के एकतृतीयांश आयाम से कहा है। तब अंधकार संस्थिति कैसे कही है ? यह संस्थिति तापक्षेत्र के समान ही जानना । उसकी सर्वाभ्यन्तर बाहा मंदर पर्वत के निकट ६३२४ योजन एवं एक योजन के छ दशांश भाग प्रमाण परिक्षेप से जानना, यावत् सर्वबाह्य बाहा लवण समुद्र के अन्त में ६३२४५ योजन एवं एक योजन के छ दशांश भाग परिक्षेप से है। जो जंबूद्वीप का परिक्षेप है, उसको दुगुना करके दश से छेद करना फिर दश भाग कम करके यह परिक्षेप होता है। आयाम से ७८३२३ योजन एवं एक योजन का एक तृतीयांश भाग होता है तब परमप्रकर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अट्ठारह मुहूर्त प्रमाण दिन और जघन्या बारह मुहूर्त की रात्रि होती है।
जो अभ्यन्तर मंडल की अन्धकार संस्थिति का प्रमाण है, वही बाह्य मंडल की तापक्षेत्र संस्थिति का प्रमाण है और जो अभ्यन्तर मंडल की तापक्षेत्र संस्थिति का प्रमाण है वही बाह्यमंडल की अन्धकार संस्थिति का प्रमाण है यावत् परमप्रकर्ष प्राप्त उत्कृष्टा अट्ठारह मुहूर्त की रात्रि और जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है । उस समय जंबूद्वीप में सूर्य १०० योजन उर्ध्व प्रकाशित करता है, १८०० योजन नीचे की तरफ तथा ४७२६३ योजन एवं एक योजन के इक्किस षष्ठ्यंश तीर्छ भाग को प्रकाशित करता है।
प्राभृत-४-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (सूर्यप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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