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आगम सूत्र १६, उपांगसूत्र-५, 'सूर्यप्रज्ञप्ति'
प्राभृत/प्राभृतप्राभृत/सूत्र मुहूर्त की रात्रि और जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है । इस प्रकार पहले छ मास होते हैं, छ मास का पर्यवसान होता है।
दूसरे छ मास में सूर्य सर्वबाह्य मंडल से सर्व अभ्यन्तर मंडल की तरफ प्रवेश करने का आरंभ करता है । प्रथम अहोरात्र में जब अनन्तर मंडल में प्रवेश करता है, तब ५३०४ योजन एवं एक योजन के सत्तावन षष्ठ्यंश भाग से एकएक मुहूर्त में गमन करता है । उस समय यहाँ रहे हुए मनुष्य को ३१९१६ योजन तथा एक योजन के उनचालीश षष्ठ्यंश भाग को तथा साठ को एकसठ भाग से छेदकर साठ चूर्णिका भागों से सूर्य दृष्टिगोचर होता है। रात्रिदिन पूर्ववत् जानना । इसी क्रम से प्रवेश करता हुआ सूर्य अनन्तर-अनन्तर मंडल में उपसंक्रमण करके प्रवेश करता है, तब एक योजन के अट्ठारह-अट्ठारह षष्ठ्यंश भाग एक मंडल में मुहूर्त गति से न्यून करते हुए और किंचित् विशेष ८५-८५ योजन की पुरुषछाया को बढाते हए सर्वाभ्यन्तर मंडल को प्राप्त करते हैं। तब ५२५१ योजन ए उनतीसषष्ठ्यंश भाग से एकएक मुहर्त में गति करता है; उस समय यहाँ रहे हए मनुष्यों को ४७२६२ एवं एक योजन के ईक्कीस षष्ठ्यंश भाग से सूर्य दृष्टिगोचर होता है । तब उत्कृष्ट अट्ठारह मुहूर्त का दिन और जघन्या बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । यह हुए दूसरे छह मास । यह हुआ छह मास का पर्यवसान और यह हुआ आदित्य संवत्सर ।
प्राभृत-२-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (सूर्यप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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