________________
आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' विरुद्ध, सर्वथा विपरीत व्यवहार कर रहे हो ।
तब प्रदेशी राजा ने कहा-भदन्त ! मेरा आप देवानुप्रिय से जब प्रथम ही वार्तालाप हुआ तभी मेरे मन में इस प्रकार का विचार यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि जितना-जितना और जैसे-जैसे मैं इस पुरुष के विपरीत यावत् सर्वथा विपरीत व्यवहार करूँगा, उतना-उतना और वैसे-वैसे मैं अधिक तत्त्व को जानूँगा, ज्ञान प्राप्त करूँगा, चारित्र को, चारित्रलाभ को, सम्यक्त्व को, सम्यक्त्व लाभ को, जीव को, जीव के स्वरूप को समझ सकूँगा । इसी कारण आप देवानुप्रिय के प्रति मैंने विपरीत यावत् अत्यन्त विरुद्ध व्यवहार किया है। केशी कुमारश्रमण ने कहाप्रदेशी! जानते हो तुम कि व्यवहारकर्ता कित
हाँ, भदन्त ! जानता हूँ कि व्यवहार-कारकों के चार प्रकार हैं-१. कोई किसी को दान देता है, किन्त उसके साथ प्रीतिजनक वाणी नहीं बोलता । २. कोई संतोषप्रद बातें तो करता है, किन्तु देता नहीं है । ३. कोई देता भी है
और लेने वाले के साथ संतोषप्रद वार्तालाप भी करता है और ४. कोई देता भी कुछ नहीं और न संतोषप्रद बात करता है । हे प्रदेशी ! जानते हो तुम कि इन चार प्रकार के व्यक्तियों में से कौन व्यवहारकुशल है और कौन व्यवहारशून्य है ? प्रदेशी-हाँ, जानता हूँ । इनमें से जो पुरुष देता है, किन्तु संभाषण नहीं करता, वह व्यवहारी है। जो पुरुष देता नहीं किन्तु सम्यग् आलाप से संतोष उत्पन्न करता है, वह व्यवहारी है। जो पुरुष देता भी है और शिष्ट वचन भी कहता है, वह व्यवहारी है, किन्तु जो न देता है और न मधुर वाणी बोलता है, वह अव्यवहारी है । उसी प्रकार हे प्रदेशी ! तुम भी व्यवहारी हो, अव्यवहारी नहीं हो। सूत्र - ७३
प्रदेशी राजा ने कहा-हे भदन्त ! आप अवसर को जानने में निपण हैं, कार्यकशल हैं यावत आपने गरु से शिक्षा प्राप्त की है तो भदन्त ! क्या आप मुझे हथेली में स्थित आँबले की तरह शरीर से बाहर जीव को नीकालकर दिखाने में समर्थ हैं ? प्रदेशी राजा ने यह कहा, उसी काल और उसी समय प्रदेशी राजा से अति दूर नहीं अर्थात् निकट ही हवा चलने से तृण-घास, वृक्ष आदि वनस्पतियाँ हिलने-डुलने लगी, कंपने लगी, फरकने लगी, परस्पर टकराने लगी, अनेक विभिन्न रूपोंमें परिणत होने लगी। तब केशी कुमारश्रमण ने पूछा-हे प्रदेशी ! तुम इन तृणादि वनस्पतियों हिलते-डुलते यावत उन-उन अनेक रूपों में परिणत होते देख रहे हो? प्रदेशी-हाँ, देख रहा हूँ
तो प्रदेशी ! क्या तुम यह भी जानते हो कि इन तृण-वनस्पतियों को कोई देव हिला रहा है अथवा असुर हिला रहा है अथवा कोई नाग, किन्नर, किंपुरुष, महोरग अथवा गंधर्व हिला रहा है। प्रदेशी-हाँ, भदन्त ! जानता हूँ। इनको न कोई देव, यावत् न गंधर्व हिला रहा है । यह वायु से हिल-डुल रही है । हे प्रदेशी ! क्या तुम उस मूर्त, काम, राग, मोह, वेद, लेश्या और धारी वायु के रूप को देखते हो ? प्रदेशी-यह अर्थ समर्थ नहीं है । जब राजन् ! तुम इस रूपधारी यावत् सशरीर वायु के रूप को भी नहीं देख सकते तो प्रदेशी ! इन्द्रियातीत ऐसे अमूर्त जीव को हाथ में रखे आंवले की तरह कैसे देख सकते हो ? क्योंकि प्रदेशी ! छद्मस्थ मनुष्य इन दस वस्तुओं को उनके सर्व भावों-पर्यायों सह जानते-देखती नहीं हैं । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अशरीरीजीव, परमाणु पुद्गल, शब्द, गंध, वायु, यह जिन होगा या जिन नहीं होगा और यह समस्त दुःखों का अन्त करेगा या नहीं करेगा किन्तु उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक अर्हन्त, जिन, केवली इन दस बातों को उनकी समस्त पर्यायों सहित जानतेदेखते हैं, इसलिए प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव और शरीर एक नहीं हैं। सूत्र - ७४
प्रदेशी राजा ने कहा-भन्ते ! क्या हाथी और कुंथु का जीव एक-जैसा है ? हाँ, प्रदेशी ! हाथी और कुंथु का जीव एक-जैसा है, प्रदेशी-हे भदन्त ! हाथी से कुंथु अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्प प्राणातिपात आदि आश्रव वाला है, और इसी प्रकार कुंथु का आहार, निहार, श्वासोच्छ्वास, ऋद्धि, द्युति आदि भी अल्प है और कुंथु से हाथी अधिक कर्म वाला, अधिक क्रिया वाला यावत् अधिक द्युति संपन्न है ? हाँ प्रदेशी ! ऐसा ही है । हाथी से कुंथु अल्प कर्म वाला और कुंथु से हाथी महाकर्म वाला है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 53