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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' रखते हुए भी वहाँ से आ नहीं सकते हैं। अत एव हे प्रदेशी ! तुम इस बात पर विश्वास करो, श्रद्धा रखो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, किन्तु यह मत मानो कि जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है। सूत्र - ६६
पश्चात् प्रदेशी राजा ने कहा-हे भदन्त ! मेरी दादी थीं। वह इसी सेयविया नगरी में धर्मपरायण यावत् धार्मिक आचार-विचार पूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने वाली, जीव-अजीव आदि तत्त्वों की ज्ञाता श्रमणोपासिक यावत् तप से आत्मा को भावित करती हुई अपना समय व्यतीत करती थी इत्यादि और आपके कथनानुसार वे पुण्य का उपार्जन कर कालमास में काल करके किसी देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुई है । उन दादी का मैं इष्ट, कान्त यावत् दुर्लभदर्शन पौत्र हूँ । अत एव वे आकर मुझसे कहें कि-हे पौत्र ! मैं तुम्हारी दादी थी और इसी सेयविया नगरी में धार्मिक जीवन व्यतीत करती हुई यावत् अपना समय बिताती थी । इस कारण मैं विपुल पुण्य का संचय करके यावत् देवलोक में उत्पन्न हुई हूँ । हे पौत्र ! तुम भी धार्मिक आचार-विचारपूर्वक अपना जीवन बीताओ। जिससे तुम भी विपुल पुण्य का उपार्जन करके यावत् देवरूप से उत्पन्न होओगे । इस प्रकार से यदि मेरी दादी आकर मुझसे कहें कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है किन्तु वही जीव वही शरीर नहीं, तो हे भदन्त ! मैं आपके कथन पर विश्वास कर सकता हूँ, प्रतीति कर सकता हूँ और अपनी रुचि का विषय बना सकता हूँ । परन्तु जब तक मेरी दादी आकर मुझसे नहीं कहतीं तब तक मेरी यह धारणा सुप्रतिष्ठित एवं समीचीन है कि जो जीव है वही शरीर है। किन्तु जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं।
केशी कुमारश्रमण ने पूछा-हे प्रदेशी ! यदि तुम स्नान, बलिकर्म और कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त करके गीली धोती पहन, झारी और धूपदान हाथ में लेकर देवकुल में प्रविष्ट हो रहे हो और उस समय कोई पुरुष विष्ठागृह में खड़े होकर यह कहे कि-हे स्वामिन् ! आओ और क्षणमात्र के लिए यहाँ बैठो, खड़े होओ और लेटो, तो क्या हे प्रदेशी ! एक क्षण के लिए भी तुम उस पुरुष की बात स्वीकार कर लोगे ? हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है,
पण केशीस्वामी-उस पुरुष की बात क्यों स्वीकार नहीं करोगे? क्योंकि भदन्त ! वह स्थान अपवित्र है और अपवित्र वस्तुओं से भरा हुआ तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! इसी सेयविया नगरी में तुम्हारी जो दादी धार्मिक यावत् देवलोक में उत्पन्न हुई हैं तथा उन्हीं दादी के तुम इष्ट यावत् दुर्लभदर्शन जैसे पौत्र हो । वे तुम्हारी दादी भी शीघ्र ही मनुष्यलोक में आने की अभिलाषी हैं किन्तु आ नहीं सकतीं।
हे प्रदेशी ! अधुनोत्पन्न देव देवलोक से मनुष्यलोक में आने के आकांक्षी होते हुए भी इन चार कारणों से आ नहीं पाते हैं-१. तत्काल उत्पन्न देव देवलोक के दिव्य कामभोगों में मूर्च्छित, गृद्ध, आसक्त और तल्लीन हो जाने में माननीय भोगों के प्रति आकर्षित नहीं होते हैं, न ध्यान देते हैं और न उनकी इच्चा करते हैं । २. देवलोक संबंधी दिव्य कामभोगों में मूर्च्छित यावत् तल्लीन हो जाने से अधुनोत्पन्नक देव का मनुष्य संबंधी प्रेम व्यवच्छिन्न सा हो जाता है और देवलोक संबंधी अनुराग संक्रांत हो जाता है । ३. अधुनोत्पन्न देव देवलोक में जब दिव्य कामभोगों में मूर्च्छित यावत् तल्लीन हो जाते हैं तब वे सोचते हैं कि अब जाऊं, अब जाऊं, कुछ समय बाद जाऊंगा, किन्तु उतने समय में तो उनके इस मनुष्यलोक के अल्पआयुषी संबंधी कालधर्म को प्राप्त हो चूकते हैं। ४. वे अधुनोत्पन्नक देव देवलोक के दिव्य कामभोगों में यावत् तल्लीन हो जाते हैं कि जिससे उनको संबंधी अतिशय तीव्र दुर्गन्ध प्रतिकूल और अनिष्टकर लगती है एवं उस मानवीय कुत्सित दुर्गन्ध के ऊपर आकाश में चार-पाँच सौ योजन तक फैल जाने से मनुष्यलोक में आने की ईच्छा रखते हुए भी वे आन में असमर्थ हो जाते हैं । अत एव हे प्रदेशी ! मनुष्यलोक में आने के ईच्छुक होने पर भी इन चार कारणों से अधुनोत्पन्न देव देवलोक से यहाँ आ नहीं सकते हैं । इसलिए प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव शरीर नहीं है और न शरीर जीव है। सूत्र - ६७
राजा प्रदेशी ने कहा-हे भदन्त ! जीव और शरीर की भिन्नता प्रदर्शित करने के लिए अपने देवों के नहीं
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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