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आगम सूत्र १३, उपांगसूत्र-२, 'राजप्रश्चिय' प्रतिज्ञा है, दृष्टि है, रुचि है, हेतु है, उपदेश है, संकल्प है, तुला है, धारणा है, प्रमाणसंगत मंतव्य है और स्वीकृत सिद्धान्त है कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है ? शरीर और जीव दोनों एक नहीं है ? केशी कुमारश्रमण ने कहाहे प्रदेशी ! हम श्रमण निर्ग्रन्थों की ऐसी संज्ञा यावत् समोसरण है कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, परन्तु जो जीव है वही शरीर है, ऐसी धारणा नहीं है।
तब प्रदेशी राजा ने कहा-हे भदन्त ! यदि आप श्रमण निर्ग्रन्थों की ऐसी संज्ञा यावत् सिद्धान्त है, तो मेरे पितामह, जो इसी जम्बूद्वीप की सेयविया नगरी में अधार्मिक यावत् राजकर लेकर भी अपने जनपद का भलीभाँति पालन, रक्षण नहीं करते थे, वे आपके कथनानुसार पापकर्मों को उपार्जित करके मरण करके किसी एक नरक में नारक रूप से उत्पन्न हुए हैं । उन पितामह का मैं इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मणाम, धैर्य और विश्वास का स्थान, कार्य करने में सम्मत तथा कार्य करने के बाद भी अनुमत्त, रत्नकरंडक के समान, जीवन की श्वासोच्छ्वास के समान, हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाला, गूलर के फूल के समान जिसका नाम सूनना भी दुर्लभ है तो फिर दर्शन की बात ही क्या है, ऐसा पौत्र हूँ । इसलिए यदि मेरे पितामह आकर मुझे इस प्रकार कहे की-'हे पौत्र ! मैं तुम्हारा पितामह था और इसी सेयविया नगरी में अधार्मिक यावत् प्रजाजनों का रक्षण नहीं करता था । इस कारण मैं कलूषित पापकर्मों का संचय करके नरक में उत्पन्न हुआ हूँ । किन्तु हे पौत्र ! तुम अधार्मिक नहीं होना, प्रजाजनों से कर लेकर उनके पालन, रक्षण में प्रमाद मत करना और न बहुत से मलिन पापकर्मों का उपार्जन करना ।' तो मैं आपके कथन पर श्रद्धा कर सकता हूँ, प्रतीति कर सकता हूँ एवं उसे अपनी रुचि का विषय बना सकता हूँ कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है । जीव और शरीर एक रूप नहीं हैं । लेकिन जब तक मेरे पितामह आकर मुझसे ऐसा नहीं कहते हैं तब तक हे आयुष्मन् श्रमण ! मेरी यह धारणा सुप्रतिष्ठित है कि जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है।
केशी श्रमणकुमार ने कहा-हे प्रदेशी ! तुम्हारी सूर्यकान्ता नाम की रानी है ? प्रदेशी-हाँ, भदन्त ! है । तो हे प्रदेशी ! यदि तुम उस सूर्यकान्ता देवी को स्नान, बलिकर्म और कौतुक-मंगल-प्रायश्चित्त करके एवं समस्त आभरण-अलंकारों से विभूषित पुरुष के साथ इष्ट-मनोनुकूल शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंधमूलक पाँच प्रकार के मानवीय कामभोगों को भोगते हुए देख लो तो, उस पुरुष के लिए तुम क्या दण्ड निश्चित करोगे ? हे भगवन् ! मैं उस पुरुष के हाथ काट दूंगा, उसे शूली पर चढ़ा दूंगा, काँटों से छेद दूंगा, पैर काट दूंगा अथवा एक ही वार से जीवनरहित कर दूंगा । हे प्रदेशी ! यदि वह पुरुष तुमसे यह कहे कि-'हे स्वामिन् ! आप घड़ी भर रुक जाओ, तब तक आप मेरे हाथ न काँटे, यावत मुझे जीवनरहित न करें जब तक मैं अपने मित्र, ज्ञातिजन, निजक और परिचितों से यह कह आऊं कि हे देवानुप्रियो ! मैं इस प्रकार के पापकर्मों का आचरण करने के कारण यह दण्ड भोग रहा हूँ, अत एव हे देवानुप्रियो ! तुम कोई ऐसे पापकर्मों में प्रवृत्ति मत करना, जिससे तुमको इस प्रकार का दण्ड भोगना पड़े, जैसा कि मैं भोग रहा हूँ।' तो हे प्रदेशी ! क्या तुम क्षणमात्र के लिए भी उस पुरुष की यह बात मानोगे?
प्रदेशी-हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । केशी कुमारश्रमण-उसकी बात क्यों नहीं मानोगे ? क्योंकि हे भदन्त ! वह पुरुष अपराधी है । तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! तुम्हारे पितामह भी हैं, जिन्होंने इसी सेयविया नगरी में अधार्मिक होकर जीवन व्यतीत किया यावत् बहुत से पापकर्मों का उपार्जन करके नरक में उत्पन्न हए हैं । उन्हीं पितामह के तुम इष्ट, कान्त यावत् दुर्लभ पौत्र हो । यद्यपि वे शीघ्र ही मनुष्य लोक में आना चाहते हैं किन्तु वहाँ से आने में समर्थ नहीं हैं। क्योंकि-प्रदेशी ! तत्काल नरक में नारक रूप से उत्पन्न जीव शीघ्र ही चार कारणों से मनुष्य लोक में आने की ईच्छा तो करते हैं, किन्तु वहाँ से आ नहीं पाते हैं । १. नरक में अधुनोत्पन्न नारक वहाँ की तीव्र वेदना के वेदन के कारण, २. नरक में तत्काल नैरयिक रूप से उत्पन्न जीव परमाधार्मिक नरकपालों द्वारा बारंबार ताडित-प्रताड़ित किये जाने से, ३. अधुनोपपन्नक नारक मनुष्यलोक में आने की अभिलाषा तो रखते हैं किन्तु नरक सम्बन्धी असातावेदनीय कर्म के क्षय नहीं होने, अननुभूत एवं अनिर्जीर्ण होने से, तथा ४. इसी प्रकार नरक संबंधी आयुकर्म क्षय नहीं होने से, अननुभूत एवं अनिर्जीर्ण होने से नारक जीव मनुष्यलोक में आने की अभिलाषा
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (राजप्रश्चिय)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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