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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' बोली, कृति एवं दैहिष चेष्टाएं संगत थीं । लालित्यपूर्ण आलाप-संलाप में वह चतुर थी। समुचित लोक-व्यवहार में कुशल थी । मनोरम, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप थी। सूत्र-८
राजा कुणिक के यहाँ पर्याप्त वेतन पर भगवान महावीर के कार्यकलाप को सूचित करने वाला एक वार्तानिवेदक पुरुष नियुक्त था, जो भगवान के प्रतिदिन के विहारक्रम आदि प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में राजा को निवेदन करता था। उसने अन्य अनेक व्यक्तियों को भोजन तथा वेतन पर नियुक्त कर रखा था, जो भगवान की प्रतिदिन की प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में उसे सचना करते रहते थे। सूत्र-९
एक समय की बात है, भंभसार का पुत्र कूणिक अनेक गणनायक, दण्डनायक, राजा, ईश्वर, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, मन्त्री, महामन्त्री, गणक, द्वारपाल, अमात्य, सेवक, पीठमर्दक, नागरिक, व्यापारी, सेठ, सेनापति, सार्थवाह, दूत, सन्धिपाल, इन विशिष्ट जनों से संपरिवृत्त बहिर्वर्ती राजसभा भवन में अवस्थित था। सूत्र-१०
उस समय श्रमण भगवान महावीर आदिकर, तीर्थंकर, स्वयं-संबुद्ध, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषवरपुंडरीक, पुरुषवर-गन्धहस्ती, अभयप्रदायक, चक्षु-प्रदायक, मार्ग-प्रदायक, शरणप्रद, जीवनप्रद, संसार-सागर में भटकते जनों के लिए द्वीप के समान आश्रयस्थान, गति एवं आधारभूत, चार अन्त युक्त पृथ्वी के अधिपति के समान चक्रवर्ती, प्रतिघात, व्यावृत्तछद्मा, जिन, ज्ञायक, तीर्ण, तारक, मुक्त, मोचक, बुद्ध, बोधक, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव, अचल, निरुपद्रव, अन्तरहित, क्षयरहित, बाधारहित, अपुनरावर्तन, अर्हत्, रागादिविजेता, जिन, केवली, सात हाथ की दैहिक ऊंचाई से युक्त, समचौरस संस्थान-संस्थित, वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन, देह के अन्तर्वर्ती पवन के उचित वेग-गतिशीलता से युक्त, कंक पक्षी की तरह निर्दोष गुदाशय युक्त, कबूतर की तरह पाचन शक्ति युक्त, उनका अपान-स्थान उसी तरह निर्लेप था, जैसे पक्षी का, पीठ और पेट के नीचे के दोनों पार्श्व तथा जंघाएं सुपरिणत-सुन्दर-सुगठित थीं, उनका मुख पद्म तथा उत्पल जैसे सुरभिमय निःश्वास से युक्त था, उत्तम त्वचा युक्त, नीरोग, उत्तम, प्रशस्त, अत्यन्त श्वेत मांस युक्त, जल्ल, मल्ल, मैल, धब्बे, स्वेद तथा रज-दोष वर्जित शरीर युक्त, अत एव निरुपलेप दीप्ति से उद्योतित प्रत्येक अंगयुक्त, अत्यधिक सघन, सुबद्ध स्नायुबंध सहित, उत्तम लक्षणमय पर्वत के शिखर के समान उन्नत उनका मस्तक था।
बारीक रेशों से भरे सेमल के फल फटने से नीकलते हए रेशों जैसे कोमल विशद, प्रशस्त, सूक्ष्म, श्लक्ष्ण, सुरभित, सुन्दर, भुजमोचक, नीलम, भींग, नील, कज्जल, प्रहृष्ट, भ्रमरवृन्द जैसे चमकीले काले, घने, घुघराले, छल्लेदार केश उनके मस्तक पर थे, जिस त्वचा पर उनके बाल उगे हुए थे, वह अनार के फूल तथा सोने के समान
लाल, निर्मल और चिकनी थी, उनका उत्तमांग सघन, और छत्राकार था, उनका ललाट निव्रण-फोडेफुन्सी आदि के घाव से रहित, समतल तथा सुन्दर एवं शुद्ध अर्द्ध चन्द्र के सदृश भव्य था, मुख पूर्ण चन्द्र के समान सौम्य था, कान मुख के समान सुन्दर रूप में संयुक्त और प्रमाणोपेत थे, बड़े सुहावने लगते थे, उनके कपोल मांसलल और परिपुष्ट थे, उनकी भौंहें कुछ खींचे हुए धनुष के समान सुन्दर काले बादल की रेखा के समान कृश, काली एवं स्निग्ध थीं, उनके नयन खिले हए पंडरीक समान थे, उनकी आँखें पद्म की तरह विकसित, धवल तथा पत्रल थीं, नासिका गरुड़ की तरह सीधी और उन्नत थी, बिम्ब फल के सदृश उनके होठ थे, उनके दाँतों की श्रेणी निष्कलंक चन्द्रमा के टुकड़े, निर्मल से भी निर्मल शंख, गाय के दूध, फेन, कुंद के फूल, जलकण और कमल-नाल के समान सफेद थी, दाँत अखंड, परिपूर्ण, अस्फुटित, टूट फूट रहित, अविरल, सुस्निग्ध, आभामय, सुजात थे । अनेक दाँत एक दन्तश्रेणी की तरह प्रतीत होते थे, जिह्वा और तालु अग्नि में तपाये हुए और जल से धोये हुए स्वर्ण के समान लाल थे, उनकी दाढ़ी-मूंछ अवस्थित, सुविभक्त बहुत हलकी-सी तथा अद्भुत सुन्दरता लिए हुए थी, ठुड्डी मांसल, सुगठित, प्रशस्त तथा चिते की तरह विपुल थी, ग्रीवा चार अंगुल प्रमाण तथा उत्तम शंख के समान त्रिवलि-युक्त एवं उन्नत थी।
___ उनके कन्धे प्रबल भैंसे, सूअर, सिंह, चिते, सांड के तथा उत्तम हाथी के कन्धों जैसे परिपूर्ण एवं विस्तीर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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