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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' तुम्ब-वीणिक, भोजक तथा भाट आदि यशोगायक से युक्त था । अनेकानेक नागरिकी तथा जनपदवासियों में उसकी कीर्ति फैली थी । बहुत से दानशील, उदार पुरुषों के लिए वह आह्वनीय, प्राह्वणीय, अर्चनीय, वन्दनीय, नमस्क-रणीय, पूजनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, कल्याणमय, मंगलमय, दिव्य, पर्युपासनीय था । वह दिव्य, सत्य एवं सत्योपाय था । वह अतिशय व अतीन्द्रिय प्रभावयुक्त था, हजारों प्रकार की पूजा उसे प्राप्त थी । बहुत से लोग वहाँ आते और उस पूर्णभद्र चैत्य की अर्चना करते । सूत्र-३
वह पूर्णभद्र चैत्य चारों ओर से एक विशाल वन-खण्ड से घिरा हुआ था । सघनता के कारण वह वन-खण्ड काला, काली आभा वाला, नीला, नीली आभा वाला तथा हरा, हरी आभा वाला था । लताओं, पौधों व वृक्षों की प्रचुरता के कारण वह स्पर्श में शीतल, शीतल आभामय, स्निग्ध, स्निग्ध आभामय, सुन्दर वर्ण आदि उत्कृष्ट गुणयुक्त तथा तीव्र आभामय था । यों वह वन-खण्ड कालापन, काली छाया, नीलापन, नीली छाया, हरापन, हरी छाया, शीतलता, शीतल छाया, स्निग्धता, स्निग्ध छाया, तीव्रता तथा तीव्र छाया लिये हुए था । वृक्षों की शाखाओं के परस्पर गुँथ जाने के कारण वह गहरी, सघन छाया से युक्त था । उसका दृश्य ऐसा रमणीय था, मानो बड़े बड़े बादलों की घटाएं घिरी हों। उस वन-खण्ड के वृक्ष उत्तम-मूल, कन्द, स्कन्ध, छाल, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल तथा बीज से
क्रमशः आनुपातिक रूप में सुन्दर तथा गोलाकार विकसित थे। उनके एक-एक-तना तथा अनेक शाखाएं थीं। उनके मध्य भाग अनेक शाखाओं और प्रशाखाओं का विस्तार लिये हुए थे। उनके सघन, विस्तृत तथा सुघड़ तने अनेक मनुष्यों द्वारा फैलाई हुई भुजाओं से भी गृहीत नहीं किये जा सकते थे । उनके पत्ते छेदरहित, अविरल, अधोमुख, तथा उपद्रव-रहित थे । उनके पुराने, पीले पत्ते झड़ गये थे । नये, हरे, चमकीले पत्तों की सघनता से वहाँ अंधेरा तथा गम्भीरता दिखाई देती थी । नवीन, परिपुष्ट पत्तों, कोमल उज्ज्वल तथा हिलते हुए किसलयों, प्रवालों से उनके उच्च शिखर सुशोभित थे । उनमें कईं वृक्ष ऐसे थे, जो सब ऋतुओं में फूलों, मंजरियों, पत्तों, फूलों के गुच्छों, गुल्मों तथा पत्तों के गुच्छों से युक्त रहते थे । कईं ऐसे थे, जो सदा समश्रेणिक रूप में स्थित थे । कईं जो सदा युगल रूप में कई पुष्प, फल आदि के भार से नित्य विनमित, प्रणमित नमे हुए थे।
यों विविध प्रकार की अपनी-अपनी विशेषताएं लिये हुए वे वृक्ष अपनी सुन्दर लुम्बियों तथा मंजरियों के रूप में मानो शिरोभूषण धारण किये रहते थे । तोते, मोर, मैना, कोयल, कोभगक, भिंगारक, कोण्डलक, चकोर, नन्दिमुख, तीतर, बटेर, बतख, चक्रवाक, कलहंस, सारस प्रभृति पक्षियों द्वारा की जाती आवाज के उन्नत एवं मधुर स्वरालाप से वे वृक्ष गुंजित थे, सुरम्य प्रतीत होते थे । वहाँ स्थित मदमाते भ्रमरों तथा भ्रमरियों या मधुमक्खियों के समूह एवं मकरंद के लोभ से अन्यान्य स्थानों से आये हुए विविध जाति के भँवर मस्ती से गुनगुना रहे थे, जिससे वह स्थान गुंजायमान हो रहा था । वे वृक्ष भीतर से फूलों और फलों से आपूर्ण थे तथा बाहर से पत्तों से ढके थे । वे पत्तों और फूलों से सर्वथा लदे थे । उनके फल स्वादिष्ट, नीरोग तथा निष्कण्टक थे । वे तरह-तरह के फूलों तथा गुच्छों, लता-कुंजों तथा मण्डपों द्वारा रमणीय प्रतीत होते थे, शोभित होते थे । वहाँ भिन्न-भिन्न प्रकार की सुन्दर ध्वजाएं फहराती थीं । चौकोर, गोल तथा लम्बी बावड़ियों में जाली-झरोखेदार सुन्दर भवन बने थे । दूर-दूर तक जाने वाली सुगन्ध के संचित परमाणुओं के कारण वे वृक्ष अपनी सुन्दर महक से मन को हर लेते थे, अत्यन्त तृप्तिकारक विपुल सुगन्ध छोड़ते थे । वहाँ नानाविध, अनेकानेक पुष्पगुच्छ, लताकुंज, मण्डप, विश्राम-स्थान, सुन्दर मार्ग थे, झण्डे लगे थे । वे वृक्ष अनेक रथों, वाहनों, डोलियों तथा पालखियों के ठहराने के लिए उपयुक्त विस्तीर्ण थे। इस प्रकार के वृक्ष रमणीय, मनोरम, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप थे। सूत्र-४
उस वन-खण्ड के ठीक बीच के भाग में एक विशाल एवं सुन्दर अशोक वृक्ष था। उसकी जड़ें डाभ तथा दूसरे प्रकार के तृणों से विशुद्ध थी । वह वृक्ष उत्तम मूल यावत् रमणीय, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप था । वह उत्तम अशोक वृक्ष तिलक, लकुच, क्षत्रोप, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव, चन्दन, अर्जुन, नीप, कटुज, कदम्ब, सव्य, पनस, दाडिम, शाल, ताल, तमाल, प्रियक, प्रियंगु, पुरोपग, राजवृक्ष, नन्दिवृक्ष-इन अनेक अन्य
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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