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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' हुए क्या सत्य मनोयोग का उपयोग करते हैं ? क्या मृषा मनोयोग का उपयोग करते हैं ? क्या सत्य-मृषा मनोयोग का उपयोग करते हैं ? क्या अ-सत्य-अ-मृषा व्यवहार-मनोयोग का उपयोग करते हैं ? गौतम ! वे सत्य मनोयोग का उपयोग करते हैं । असत्य मनोयोग का उपयोग नहीं करते । सत्य-असत्य-मिश्रित मनोयोग का उपयोग नहीं करते । किन्तु अ-सत्य-अमृषा-मनोयोग-व्यवहार मनोयोग का वे उपयोग करते हैं।
भगवन् ! वाक्योग को प्रयुक्त करते हुए क्या सत्य वाक्-योग को प्रयुक्त करते हैं ? मृषा-वाक्-योग को प्रयुक्त करते हैं ? सत्य-मृषा-वाक् योग को प्रयुक्त करते हैं ? क्या असत्य-अमृषा-वाक्-योग को प्रयुक्त करते हैं ? गौतम ! वे सत्य-वाक्-योग को प्रयुक्त करते हैं । मृषा-वाक्-योग को प्रयुक्त नहीं करते । न वे सत्य-मृषा-वाक्-योग को ही प्रयुक्त करते हैं । वे असत्य-अमृषा-वाक्-योग-व्यवहार-वचन-योग को भी प्रयुक्त करते हैं । वे काययोग को प्रवृत्त करते हुए आगमन करते हैं, स्थित होते हैं-बैठते हैं, लेटते हैं, उल्लंघन करते हैं, प्रलंघन करते हैं, उत्क्षेपण करते हैं तथा तिर्यक् क्षेपण करते हैं । अथवा ऊंची, नीची और तीरछी गति करते हैं । काम में ले लेने के बाद प्रातिहारिक आदि लौटाते हैं। सूत्र - ५५
भगवन् ! क्या सयोगी सिद्ध होते हैं ? यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता । वे से पहले पर्याप्त, संज्ञी, पंचेन्द्रिय जीव के जघन्य मनोयोग के नीचे के स्तर से असंख्यातगुणहीन मनोयोग का निरोध करते हैं । उसके बाद पर्याप्त बेइन्द्रिय जीव के जघन्य वचन-योग के नीचे के स्तर से असंख्यातगुणहीन वचन-योग का निरोध करते हैं । तदनन्तर अपर्याप्त-सूक्ष्म पनक जीव के जघन्य योग के नीचे के स्तर से असंख्यात गुण हीन काय-योग का निरोध करते हैं।
इस उपाय या उपक्रम द्वारा वे पहले मनोयोग का निरोध करते हैं । फिर वचन-योग का निरोध करते हैं। काय-योग का निरोध करते हैं । फिर सर्वथा योगनिरोध करते हैं । इस प्रकार-योग निरोध कर वे अयोगत्व प्राप्त करते हैं । फिर ईषत्स्पृष्ट पाँच ह्रस्व अक्षर के उच्चारण के असंख्यात कालवर्ती अन्तर्मुहुर्त तक होने वाली शैलेशी अवस्था प्राप्त करते हैं । उस शैलेशी-काल में पूर्वविरचित गुण-श्रेणी के रूप में रहे कर्मों को असंख्यात गुणश्रेणियों में अनन्त कर्मांशों के रूप में क्षीण करते हुए वेदनीय आयुष्य, नाम तथा गोत्र-एक साथ क्षय करते हैं । फिर औदारिक, तैजस तथा कार्मण शरीर का पूर्ण रूप से परित्याग कर देते हैं । वैसा कर ऋजु श्रेणि प्रतिपन्न हो अस्पृश्यमान गति द्वारा एक समय में ऊर्ध्व-गमन कर साकारोपयोग में सिद्ध होते हैं । वहाँ सादि, अपर्यवसित, अशरीर, जीवधन, आत्मप्रदेश युक्त, ज्ञान तथा दर्शन उपयोग सहित, निष्ठितार्थ, निरेजन, नीरज, निर्मल, वितिमिर, विशुद्ध, शाश्वतकाल पर्यन्त संस्थित रहते हैं।
भगवन् ! वहाँ वे सिद्ध होते हैं, सादि-अपर्यवसित, यावत् शाश्वतकाल पर्यन्त स्थित रहते हैं-इत्यादि आप किस आशय से फरमाते हैं ? गौतम ! जैसे अग्नि से दग्ध बीजों की पुनः अंकुरों के रूप में उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार कर्म-बीज दग्ध होने के कारण सिद्धों की भी फिर जन्मोत्पत्ति नहीं होती । गौतम ! मैं इसी आशय से यह कह रहा हूँ कि सिद्ध सादि, अपर्यवसित... होते हैं । भगवन् ! सिद्ध होते हैं ? गौतम ! वे वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन
ते हैं । भगवन ! सिद्ध होते हए जीव किस संस्थान में सिद्ध होते हैं ? गौतम ! छह संस्थानों में से किसी भी संस्थान में सिद्ध हो सकते हैं । भगवन् ! सिद्ध होते हुए जीव कितनी अवगाहना में सिद्ध होते हैं ? गौतम ! जघन्य सात हाथ तथा उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष की अवगाहना में सिद्ध होते हैं । भगवन् ! सिद्ध होते हुए जीव कितने आयुष्य में सिद्ध होते हैं ? गौतम ! कम से कम आठ वर्ष से कुछ अधिक आयुष्य में तथा अधिक से अधिक करोड़ पूर्व के आयुष्य में सिद्ध होते हैं।
भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे सिद्ध निवास करते हैं ? नहीं, ऐसा अर्थ-ठीक नहीं है। रत्नप्रभा के साथ-साथ शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, तमःप्रभा तथा तमस्तमःप्रभा के सम्बन्ध में ऐसा ही समझना चाहिए । भगवन् ! क्या सिद्ध सौधर्मकल्प के नीचे निवास करते हैं ? नहीं, ऐसा अभिप्राय ठीक नहीं है। ईशान, सनत्कुमार यावत् अच्युत तक, ग्रैवेयक विमानों तथा अनुत्तर विमानों के सम्बन्ध में ऐसा ही समझना चाहिए । भगवन् ! क्या सिद्ध ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के नीचे निवास करते हैं ? नहीं, ऐसा अभिप्राय ठीक नहीं है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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