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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक'
वे परिव्राजक इस प्रकार के आचार या चर्या द्वारा विचरण करते हुए, बहुत वर्षों तक परिव्राजक-पर्याय का पालन करते हैं । बहुत वर्षों तक वैसा कर मृत्युकाल आने पर देह त्याग कर उत्कृष्ट ब्रह्मलोक कल्प में देव रूप में उत्पन्न होते हैं । तदनुरूप उनकी गति और स्थिति होत है। उनकी स्थिति या आयुष्य दस सागरोपम कहा गया है। अवशेष वर्णन पूर्ववत् है। सूत्र - ४९
उस काल, उस समय, एक बार जब ग्रीष्म ऋतु का समय था, जेठ का महीना था, अम्बड़ परिव्राजक के सात सौ अन्तेवासी गंगा महानदी के दो किनारों से काम्पिल्यपुर नामक नगर से पुरिमताल नामक नगर को रवाना हुए । वे परिव्राजक चलते-चलते एक ऐसे जंगल में पहुँच गये, जहाँ कोई गाँव नहीं था, न जहाँ व्यापारियों के काफिले, गोकुल, उनकी निगरानी करने वाले गोपालक आदि का ही आवागमन था, जिसके मार्ग बड़े विकट थे । वे जंगल का कुछ भाग पार कर पाये थे कि चलते समय अपने साथ लिया हुआ पानी पीते-पीते क्रमशः समाप्त हो गया । तब वे परिव्राजक, जिनके पास का पानी समाप्त हो चूका था, प्यास से व्याकुल हो गये । कोई पानी देने वाला दिखाई नहीं दिया । वे परस्पर एक दूसरे को संबोधित कर कहने लगे।
देवानुप्रियो ! हम ऐसे जंगल का, जिसमें कोई गाँव नहीं है । यावत् कुछ ही भाग पार कर पाये कि हमारे पास जो पानी था, समाप्त हो गया । अतः देवानुप्रियो ! हमारे लिए यही श्रेयस्कर है, हम इस ग्रामरहित वन में सब दिशाओं में चारों और जलदाता की मार्गणा-गवेषणा करें । उन्होंने परस्पर ऐसी चर्चा कर यह तय किया । ऐसा तय कर उन्होंने उस गाँव रहित जंगल में सब दिशाओं में चारों ओर जलदाता की खोज की । खोज करने पर भी कोई जलदाता नहीं मिला । फिर उन्होंने एक दूसरे को संबोधित कर कहा । देवानुप्रियो ! यहाँ कोई पानी देने वाला नहीं है। अदत्त, सेवन करना हमारे लिए कल्प्य नहीं है । इसलिए हम इस समय आपत्तिकाल में भी अदत्त का ग्रहण न करें, सेवन न करें, जिससे हमारे तप का लोप न हो । अतः हमारे लिए यही श्रेयस्कर है, हम त्रिदण्ड-कमंडलु, रुद्राक्ष-मालाएं, करोटिकाएं, वृषिकाएं, षण्नालिकाएं, अंकुश, केशरिकाएं, पवित्रिकाएं, गणेत्रिकाएं, सुमिरिनियाँ, छत्र, पादुकाएं, काठ की खड़ाऊएं, धातुरक्त शाटिकाएं एकान्त में छोड़कर गंगा महानदी में वालू का संस्तारक तैयार कर संलेखनापूर्वक-शरीर एवं कषायों को क्षीण करते हुए आहार-पानी का परित्याग कर, कटे हुए वृक्ष जैसी निश्चेष्टावस्था स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा न करते हए संस्थित हो । परस्पर एक दूसरे से ऐसा तय किया । ऐसा तय कर उन्होंने त्रिदण्ड आदि अपने उपकरण एकान्त में डाल दिये । महानदी गंगा में प्रवेश किया। वालू का संस्तारक किया । वे उस पर आरूढ़ हए । पूर्वाभिमुख हो पद्मासन में बैठे । बैठकर दोनों हाथ जोड़े और बोले ।
अर्हत-इन्द्र आदि द्वारा पुजित यावत सिद्धावस्था नामक स्थिति प्राप्त किये हए-सिद्धों को नमस्कार हो। भगवान् महावीर को, जो सिद्धावस्था प्राप्त करने में समुद्यत हैं, हमारा नमस्कार हो । हमारे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक अम्बड परिव्राजक को नमस्कारहो । पहले हमने अम्बड परिव्राजक के पास स्थूल प्राणातिपात, मृषावाद, चोरी, सब प्रकार के अब्रह्मचर्य तथा स्थूल परिग्रह का जीवन भर के लिए प्रत्याख्यान किया था । इन समय भगवान महावीर के साक्ष्य से हम सब प्रकार की हिंसा, आदि का जीवनभर के लिए त्याग करते हैं । सर्व प्रकार के क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, रति, अरति, मायामृषा, तथा मिथ्यादर्शनशल्य जीवनभर के लिए त्याग करते हैं।
अकरणीय योग-क्रिया का जीवनभर के लिए त्याग करते हैं । अशन, पान, खादिम, स्वादिम, इन चारों का जीवनभर के लिए त्याग करते हैं । यह शरीर, जो इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोम, प्रेय, प्रेज्य, स्थैर्यमय, वैश्वासिक, सम्मत, बहमत, अनुमत, गहनों की पेटी के समान प्रीतिकर है, इसी सर्दी न लग जाए, गर्मी न लग जाए, यह भूखा न रह जाए, प्यासा न रह जाए, इसे साँप न डस ले, चोर उपद्रुत न करें, डांस न काटें, मच्छर न काटें, (कफ) सन्निपात आदि से जनित विविध रोगों द्वारा, तत्काल मार डालने वाली बीमारियों द्वारा यह पीड़ित न हो, इसे परिषह, उपसर्ग न हों, जिसके लिए हर समय ऐसा ध्यान रखते हैं, उस शरीर का हम चरम उच्छ्वास-निःश्वास तक व्युत्सर्जन करते हैं-संलेखना द्वारा जिनके शरीर तथा कषाय दोनों ही कृश हो रहे थे, उन परिव्राजकों ने
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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