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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक' ब्राह्मण-परिव्राजक होते हैं, जो इस प्रकार हैंसूत्र-४५-४७
कर्ण, करकण्ट, अम्बड, पाराशर, कृष्ण, द्वैपायन, देवगुप्त तथा नारद | आठ क्षत्रिय-परिव्राजक-क्षत्रिय जाति में से दीक्षिप्त परिव्राजक होते हैं । शीलधी, शशिधर, नग्नक, भग्नक, विदेह, राजराज, राजराम तथा बल । सूत्र-४८
वे परिव्राजक ऋक्, यजु, साम, अथर्वण-इन चारों वेदों, पाँचवे इतिहास, छठे निघण्टु के अध्येता थे । उन्हें वेदों का सांगोपांग रहस्य बोधपूर्वक ज्ञान था । वे चारों वेदों के सारक, पारग, धारक, तथा वेदों के छहों अंगों के ज्ञाता थे । वे षष्टितन्त्र में विशारद या निपुण थे । संख्यान, शिक्षा, वेद मन्त्रों के उच्चारण के विशिष्ट विज्ञान, कल्प, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिषशास्त्र तथा अन्य ब्राह्मण-ग्रन्थ इन सब में सुपरिनिष्ठित-सुपरिकपक्व ज्ञानयुक्त होते हैं । वे परिव्राजक दान-धर्म, शौच-धर्म, दैहिक शुद्धि एवं स्वच्छतामूलक आचार तीर्थाभिषेक आख्यान करते हुए, प्रज्ञापन करते हुए, प्ररूपण करते हुए-विचरण करते हैं । उनका कथन है, हमारे मतानुसार जो कुछ भी अशुचि प्रतीत हो जाता है, वह मिट्टी लगाकर जल से प्रक्षालित कर लेने पर पवित्र हो जाता है । इस प्रकार हम स्वच्छ देह एवं वेषयुक्त तथा स्वच्छाचार युक्त हैं, शुचि, शुच्याचार युक्त हैं, अभिषेक द्वारा जल से अपने आपको पवित्र कर निर्विघ्नतया स्वर्ग जाएंगे।
उन परिव्राजकों के लिए मार्ग में चलते समय के सिवाय कूए, तालाब, नदी, वापी, पुष्करिणी, दीर्घिका, क्यारी, विशाल सरोवर, गुंजालिका तथा जलाशय में प्रवेश करना कल्प्य नहीं है । शकट यावत् स्यन्दमानिका पर चढकर जाना उन्हें नहीं कल्पता-उन परिव्राजकों को घोडे, हाथी, ऊंट, बैल, भैंसे तथा गधे पर सवार होकर जाना नहीं कल्पता । इसमें बलाभियोग का अपवाद है । उन परिव्राजकों को नटों यावत् दिखाने वालों के खेल, पहलवानों की कुश्तियाँ, स्तुति-गायकों के प्रशस्तिमूलक कार्य-कलाप आदि देखना, सूनना नहीं कल्पता । उन परिव्राजकों के लिए हरी वनस्पति का स्पर्श करना, उन्हें परस्पर घिसना, हाथ आदि द्वारा अवरुद्ध करना, शाखाओं, पत्तों आदि को ऊंचा करना या उन्हें मोड़ना, उखाड़ना कल्प्य नहीं हे ऐसा करना उनके लिए निषिद्ध है। उन परिव्राजकों के लिए स्त्री-कथा, भोजन-कथा, देश-कथा, राज-कथा, चोर-कथा, जनपद-कथा, जो अपने लिए एवं दूसरों के लिए हानिप्रद तथा निरर्थक है, करना कल्पनीय नहीं है।
उन परिव्राजकों के लिए तूंबे, काठ तथा मिट्टी के पात्र के सिवाय लोहे, रांगे, ताँबे, जसद, शीशे, चाँदी या सोने के पात्र या दूसरे बहुमूल्य धातुओं के पात्र धारण करना कल्प्य नहीं है। उन परिव्राजकों को लोहे के या दूसरे बहमूल्य बन्ध-इन से बंधे पात्र रखना कल्प्य नहीं है। उन परिव्राजकों को एक धातु से-गेरुए वस्त्रों के सिवाय तरह तरह के रंगों से रंगे हुए वस्त्र धारण करना नहीं कल्पता । उन परिव्राजकों को ताँबे के एक पवित्रक के अतिरिक्त हार, अर्धहार, एकावली, मुक्तावली, कनकावली, रत्नावली, मुखी, कण्ठमुखी, प्रालम्ब, त्रिसरक, कटिसूत्र, दशमुद्रिकाएं, कटक, त्रुटित, अंगद, केयूर, कुण्डल, मुकूट तथा चूडामणि रत्नमय शिरोभूषण धारण करना नहीं कल्पता । उन परिव्राजकों को फूलों से बने केवल एक कर्णपूर के सिवाय गूंथकर बनाई गई मालाएं, लपेट कर बनाई गई मालाएं, फूलों को परस्पर संयुक्त कर बनाई गई मालाएं या संहित कर परस्पर एक दूसरे में उलझा कर बनाई गई मालाएं ये चार प्रकार की मालाएं धारण करना नहीं कल्पता । उन परिव्राजकों को केवल गंगा की मिट्टी के अतिरिक्त अगर, चन्दन या केसर से शरीर को लिप्त करना नहीं कल्पता।
उन परिव्राजकों के लिए मगध देश के तोल के अनुसार एक प्रस्थ जल लेना कल्पता है । वह भी बहता हुआ हो, एक जगह बंधा हुआ नहीं । वह भी यदि स्वच्छ हो तभी ग्राह्य है, कीचड़युक्त हो तो ग्राह्य नहीं है । स्वच्छ होने के साथ-साथ वह बहुत साफ और निर्मल हो, तभी ग्राह्य है अन्यथा नहीं । वह वस्त्र से छाना हुआ हो तो उनके लिए कल्प्य है, अनछाना नहीं । वह भी यदि दिया गया हो, तभी ग्राह्य है, बिना दिया हुआ नहीं । वह भी केवल पीने के लिए ग्राह्य है, हाथ पैर, चरू, चमच, धोने के लिए या स्नान करने के लिए नहीं । उन परिव्राजकों के लिए मागधतोल अनुसार एक आढक जल लेना कल्पता है । वह भी बहता हुआ हो, एक जगह बंधा हुआ या बन्द नहीं यावत् वह भी केवल हाथ, पैर, चरू, चमच, धोनेके लिए ग्राह्य है, पीने के लिए या स्नान करने के लिए नहीं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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