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आगम सूत्र १२, उपांगसूत्र-१, 'औपपातिक'
यों चिन्तन करते हुए बहुत से उग्रों, उग्रपुत्रों, भोगों, भोगपुत्रों, राजन्यों, क्षत्रियों, ब्राह्मणों, सुभटों, योद्धाओं, प्रशास्ताओं, मल्लकियों, लिच्छिवियों तथा अन्य अनेक राजाओं, ईश्वरों, तलवरों, माडंबिकों, कौटुम्बिकों, इभ्यों, श्रेष्ठियों, सेनापतियों एवं सार्थवाहों, इन सबके पुत्रों में से अनेक वन्दन हेतु, पूजन हेतु, सत्कार हेतु, सम्मान हेतु, दर्शन हेतु, उत्सुकता-पूर्ति हेतु, अर्थविनिश्चय हेतु, अश्रुत, श्रुत, अनेक इस भाव से, अनेक यह सोचकर कि युक्ति, तर्क तथा विश्लेषणपूर्वक तत्त्व-जिज्ञासा करेंगे, अनेक यह चिन्तन कर कि सभी सांसारिक सम्बन्धों का परिवर्जन कर, मुण्डित होकर अगार-धर्म से आगे बढ़ अनगार-धर्म स्वीकार करेंगे, अनेक यह सोचकर कि पाँच अणुव्रत, सात शिक्षा व्रत-यों बारह व्रतयुक्त श्रावक धर्म स्वीकार करेंगे, अनेक भक्ति-अनुराग के कारण, अनेक यह सोचकर कि यह अपना वंश-परंपरागत व्यवहार है, भगवान की सन्निधिमें आने को उद्यत हए
उन्होंने स्नान किया, नित्य कार्य किये, कौतुक, ललाट पर तिलक किया; प्रायश्चित्त, मंगलविधान किया, गले में मालाएं धारण की, रत्नजड़े स्वर्णाभरण, हार, अर्धहार, तीन लड़ों के हार, लम्बे हार, लटकती हुई करधनियाँ आदि शोभावर्धक अलंकारों से अपने को सजाया, श्रेष्ठ, उत्तम वस्त्र पहने । उन्होंने समुच्चय रूप में शरीर पर चन्दन का लेप किया। उनमें से कईं घोड़ों पर, कईं हाथियों पर, कईं शिबिकाओं पर, कईं पुरुषप्रमाण पालखियों पर सवार हुए । अनेक व्यक्ति बहुत पुरुषों द्वारा चारों ओर से घिरे हुए पैदल चल पड़े । वे उत्कृष्ट, हर्षोन्नत, सुन्दर, मधुर घोष द्वारा नगरी को लहराते, गरजते विशाल समुद्रसदृश बनाते हुए उसके बीच से गुजरे । वैसा कर, जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ आए । आकर न अधिक दूर से, न अधिक निकट से भगवान के तीर्थंकर-रूप के वैशिष्ट्यद्योतक छत्र आदि अतिशय देखी । देखते ही अपने यान, वाहन, वहाँ ठहराये । यान, रथ आदि वाहन घोडे, हाथी आदि से नीचे ऊतरे । जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ आकर श्रमण भगवान महावीर की तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की; वन्दन-नमस्कार किया । भगवान के न अधिक दूर, न अधिक निकट स्थित हो, उनके वचन सूनने की उत्कण्ठा लिए, नमस्कार-मुद्रा में भगवान महावीर के सामने विनयपूर्वक अंजलि बाँधे पर्युपासना करने लगे। सूत्र - २८
प्रवृत्ति-निवेदक को जब यह बात मालूम हुई, वह हर्षित एवं परितुष्ट हुआ । उसने स्नान किया, यावत् संख्या में कम पर बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया । अपने घर से नीकला । नीकलकर वह चम्पा नगरी के बीच, जहाँ राजा कूणिक का महल था, जहाँ बहिर्वर्ती राजसभा-भवन था वहाँ आया । राजा सिंहासन पर बैठा । साढ़े बारह लाख रजत-मुद्राएं वार्ता-निवेदक को प्रीतिदान के रूप में प्रदान की । उत्तम वस्त्र आदि द्वारा उसका सत्कार किया, आदरपूर्ण वचनों से सम्मान किया । यों सत्कृत, सम्मानित कर उसे बिदा किया । सूत्र - २९
तब भंभसार के पुत्र राजा कूणिक ने बलव्याप्त को बुलाकर उससे कहा-देवानुप्रिय ! आभिषेक्य, प्रधान पद पर अधिष्ठित हस्ति-रत्न को सुसज्ज कराओ । घोड़े, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं से परिगठित चतुरंगिणी सेना को तैयार करो । सुभद्रा आदि देवियों के लिए, उनमें से प्रत्येक के लिए यात्राभिमुख, जोते हुए यानों को बाहरी सभाभवन के निकट उपस्थापित करो | चम्पा नगरी के बाहर और भीतर, उसके संघाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख, राजमार्ग तथा सामान्य मार्ग, इन सबकी सफाई कराओ । वहाँ पानी का छिड़काव कराओ, गोबर आदि का लेप कराओ । नगरी के गलियों के मध्य-भागों तथा बाजार के रास्तों की भी सफाई कराओ, पानी का छिडकाव कराओ, उन्हें स्वच्छ व सहावने कराओ । मंचातिमंच कराओ। तरह तरह के रंगों की, ऊंची, सिंह, चक्र आदि चिह्नों से युक्त ध्वजाएं, पताकाएं तथा अतिपताकाएं, जिनके परिपार्श्व अनेकानेक छोटी पताकाओं से सजे हों, ऐसी बड़ी पताकाएं लगवाओ । नगरी की दीवारों को लिपवाओ, पुतवाओ । यावत् जिससे सुगन्धित धूएं को प्रचुरता से वहाँ गोल-गोल धूममय छल्ले बनते दिखाई दें । इनमें जो करने का हो, उसे करके-कर्मकरों, सेवकों, श्रमिकों आदि को आदेश देकर, तत्सम्बन्धी व्यवस्था कर, उसे अपनी देखरेख में संपन्न करवा कर तथा जो दूसरों द्वारा करवाने का हो, उसे दूसरों से करवाकर मुझे सूचित करो कि आज्ञानुपालन हो गया है । यह सब हो जाने पर मैं भगवान के अभिवंदन हेतु जाऊं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (औपपातिक)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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