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आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक
अध्ययन-१०- वरदत्त सूत्र-४६
हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में साकेत नाम का नगर था । उत्तरकुरु उद्यान था । उसमें पाशमृग यक्ष का यक्षायतन था । राजा मित्रनन्दी थे। श्रीकान्ता रानी थी । वरदत्त राजकुमार था । कुमार वरदत्त का वरसेना आदि ५०० श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ था । भगवान महावीर का पदार्पण हुआ । वरदत्त ने श्रावकधर्म अङ्गीकार किया । पूर्वभव पृच्छा-हे गौतम ! शतद्वार नगर था । विमलवाहन राजा था । एकदा धर्मरुचि अनगार को आते हए देखकर उत्कट भक्तिभावों से निर्दोष आहार का दान कर प्रतिलाभित किया । शुभ मनुष्य आयुष्य का बन्ध किया । यहाँ उत्पन्न हुआ।
शेष वृत्तान्त सुबाहुकुमार की तरह ही समझना । यावत् प्रव्रज्या ली । वरदत्त कुमार का जीव स्वर्गीय तथा मानवीय, अनेक भवों को धारण करता हुआ अन्त में सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न होगा, वहाँ से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न हो, दृढ़प्रतिज्ञ की तरह सिद्धगति को प्राप्त करेगा । हे जम्बू ! इस प्रकार यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने सुखविपाक के दशम अध्ययन का अर्थ प्रतिपादन किया है, ऐसा मैं कहता हूँ । भगवन् ! आपका सुखविपाक का कथन, जैसे कि आपने फरमाया है, वैसा ही है, वैसा ही है।
अध्ययन-१०-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण श्रुतस्कन्ध-२ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
११ विपाकश्रुत-अंगसूत्र-११-पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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