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आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक पैरों वाली तथा अत्यन्त रूपवती थी। तत्पश्चात् उस कन्या के मातापिता न बारहवे दिन बहत-सा अशनादिक तैयार करवाया यावत् मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धीजन तथा परिजनों को निमन्त्रित करके एवं भोजनादि से निवृत्त हो लेने पर कन्या का नामकरण संस्कार करते हुए कहा-हमारी इस कन्या का नाम देवदत्ता रखा जाता है। तदनन्तर वह देवदत्ता पाँच धायमाताओं के संरक्षण में वृद्धि को प्राप्त होने लगी । वह देवदत्ता बाल्यावस्था से मुक्त होकर यावत् यौवन, रूप व लावण्य से अत्यन्त उत्तम व उत्कृष्ट शरीर वाली हो गई । एक बार वह देवदत्ता स्नान करके यावत् समस्त आभूषणों से विभूषित होकर बहत सी कब्जा आदि दासियों के साथ अपने मकान के ऊपर सोने की गेंद के साथ क्रीड़ा करती हुई विहरण कर रही थी।
इधर स्नानादि से निवृत्त यावत् सर्वालङ्कारविभूषित राजा वैश्रमणदत्त अश्व पर आरोहण करता है और बहुत से पुरुषों के साथ परिवृत अश्वक्रीड़ा के लिए जाता हुआ दत्त गाथापति के घर से कुछ पास से नीकलता है। तदनन्तर वह वैश्रमणदत्त राजा देवदत्ता कन्या को ऊपर सोने की गेंद से खेलती हुई देखता है और देखकर देवदत्ता दारिका के रूप, यौवन व लावण्य से विस्मय को प्राप्त होता है। कौटम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहता है-'हे देवानुप्रियो ! यह बालिका किसकी है ? और इसका क्या नाम है ?' तब वे कौटुम्बिक पुरुष हाथ जोड़कर यावत् कहने लगे-'स्वामिन् ! यह कन्या दत्त गाथापति की पुत्री और कृष्णश्री की आत्मजा है जो रूप, यौवन तथा लावण्य-कान्ति से उत्तम तथा उत्कृष्ट शरीर वाली है।
तदनन्तर राजा वैश्रमणदत्त अश्ववाहनिका से वापिस आकर अपने आभ्यन्तर स्थानीय को बुलाकर उनको इस प्रकार कहता है-देवानुप्रियो ! तुम जाओ और जाकर सार्थवाह दत्त की पुत्री और कृष्णश्री भार्या की आत्मजा देवदत्ता नाम की कन्या की युवराज पुष्पनन्दी के लिए भार्या रूप में माँग करो । यदि वह राज्य के बदले भी प्राप्त की जा सके तो भी प्राप्त करने के योग्य है । तदनन्तर वे अभ्यंतर-स्थानीय पुरुष राजा वैश्रमण की इस आज्ञा को सम्मानपूर्वक स्वीकार कर, हर्ष को प्राप्त हो यावत् स्नानादि क्रिया करके तथा राजसभा में प्रवेश करने योग्य उत्तम वस्त्र पहनकर जहाँ दत्त सार्थवाह का घर था, वहाँ आए । दत्त सार्थवाह भी उन्हें आता देखकर बड़ी प्रसन्नता के साथ आसन से उठकर उनके सन्मान के लिए सात-आठ कदम उनके सामने अगवानी करने गया । उनका स्वागत कर आसन पर बैठने की प्रार्थना की। तदनन्तर आश्वस्त, विश्वस्त, को उपलब्ध हए एवं सुखपूर्वक उत्तम आसनों
स्थित हए । इन आने वाले राजपरुषों से दत्त ने इस प्रकार कहा-देवानप्रियो ! आज्ञा दीजिए, आपके शुभागमन का प्रयोजन क्या है ?
दत्त सार्थवाह के इस तरह पूछने पर आगन्तुक राजपुरुषों ने कहा-'हे देवानुप्रिय ! हम आपकी पुत्री और कृष्णश्री की आत्मजा देवदत्ता नाम की कन्या की युवराज पुष्पनन्दी के लिए भार्या रूप से मंगनी करने आए हैं । यदि हमारी माँग आपको युक्त, अवसरप्राप्त, श्लाघनीय लगे तथा वरवधू का यह संयोग अनुरूप जान पड़ता हो तो देवदत्ता को युवराज पुष्पनन्दी के लिए दीजिए और बतलाइए कि इसके लिए आपको क्या शुल्क-उपहार दिया जाय ? उन आभ्यन्तरस्थानीय पुरुषों के इस कथन को सूनकर दत्त बोले-'देवानुप्रियो ! मेरे लिए यही बड़ा शुल्क है कि महाराज वैश्रमणदत्त मेरी इस बालिका को ग्रहण कर मुझे अनुग्रहीत कर रहे हैं। तदनन्तर दत्त गाथापति ने उन अन्तरङ्ग राजपुरुषों का पुष्प, गंध, माला तथा अलङ्कारादि से यथोचित सत्कार-सम्मान किया और उन्हें विसर्जित किया । वे आभ्यन्तर स्थानीय पुरुष जहाँ वैश्रमणदत्त राजा था वहाँ आए और उन्होंने वैश्रमण राजा को उक्त सारा वृत्तान्त निवेदित किया।
तदनन्तर किसी अन्य समय दत्त गाथापति शुभ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र व मुहूर्त में विपुल अशनादिक सामग्री तैयार करवाता है और मित्र, ज्ञाति, निजक स्वजन सम्बन्धी तथा परिजनों को आमन्त्रित कर यावत् स्नानादि करके दुष्ट स्वप्नादि के फल को विनष्ट करने के लिए मस्तक पर तिलक व अन्य माङ्गलिक कार्य करके सुखप्रद आसन पर स्थित हो उस विपुल अशनादिक का मित्र, ज्ञाति, स्वजन, सम्बन्धी व परिजनों के साथ आस्वादन, विस्वादन करने के अनन्तर उचित स्थान पर बैठ आचान्त, चोक्ष, अतः परम शुचिभूत होकर मित्र,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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