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आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक थी वहाँ पर आया । जिसके मानसिक संकल्प विफल हो गए हैं, जो निराश व चिन्तित हो रही है, ऐसी निस्तेज श्यामादेवी को देखकर कहा-हे देवानुप्रिये ! तू क्यों इस तरह अपहृतमनःसंकल्पा होकर चिन्तित हो रही है ?
सिंहसेन राजा के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर दूध के उफान के समान क्रुद्ध हुई अर्थात् क्रोधयुक्त प्रबल वचनों से सिंह राजा के प्रति इस प्रकार बोली-हे स्वामिन् ! मेरी एक कम पाँच सौ सपत्नियों की एक कम पाँच सौ मातें इस वृत्तान्त को जानकर इकट्ठी होकर एक दूसरे को इस प्रकार कहने लगीं-महाराज सिंहसेन श्यामादेवी में अत्यन्त आसक्त, गृद्ध, ग्रथित व अध्युपपन्न हुए हमारी कन्याओं का आदर सत्कार नहीं करते हैं । उनका ध्यान भी नहीं रखते हैं; प्रत्युत उनका अनादर व विस्मरण करते हुए समय-यापन कर हे हैं; इसलिए हमारे लिये यही समुचित है कि अग्नि, विष या किसी शस्त्र के प्रयोग से श्यामा का अन्त कर डालें । तदनुसार वे मेरे अन्तर, छिद्र और विवर की प्रतीक्षा करती हुई अवसर देख रही हैं । न जाने मुझे किस कुमौत से मारे ! इस कारण भयाक्रान्त हुई मैं कोपभवन में आकर आर्तध्यान कर रही हैं।
तदनन्तर महाराजा सिंहसेन ने श्यामादेवी से कहा-हे देवानुप्रिये ! तू इस प्रकार अपहृत मन वाली होकर आर्तध्यान मत कर । निश्चय ही मैं ऐसा उपाय करूँगा कि तुम्हारे शरीर को कहीं से भी किसी प्रकार की आबाधा तथा प्रबाधा न होने पाएगी । इस प्रकार श्यामा देवी को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर वचनों से आश्वासन देता है और वहाँ से नीकल जाता है । नीकलकर कौटुम्बिक-अनुचर पुरषों को बुलाता है और कहता है-तुम लोग जाओ
और जाकर सुप्रतिष्ठित नगर से बाहर पश्चिम दिशा के विभाग में एक बड़ी कूटाकारशाला बनाओ जो सैकड़ों स्तम्भों से युक्त हो, प्रासादीय, अभिरूप, प्रतिरूप तथा दर्शनीय हो-वे कौटुम्बिक पुरुष दोनों हाथ जोड़कर सिर पर दसों नख वाली अञ्जलि रख कर इस राजाज्ञा को शिरोधार्य करते हुए चले जाते हैं । जाकर सुप्रतिष्ठित नगर के बाहर पश्चिम दिक विभाग में एक महती व अनेक स्तम्भों वाली प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप कूटाकारशाला तैयार करवा कर महाराज सिंहसेन की आज्ञा प्रत्यर्पण करते हैं
तदनन्तर राजा सिंहसेन किसी समय एक कम पाँच सौ देवियों की एक कम पाँच सौ माताओं को आमन्त्रित करता है । सिंहसेन राजा का आमंत्रण पाकर वे एक कम पाँच सौ देवियों की एक कम पाँच सौ माताएं सर्वप्रकार से वस्त्रों एवं आभूषणों से सुसज्जित हो अपने-अपने वैभव के अनुसार सुप्रतिष्ठित नगर में राजा सिंहसेन जहाँ थे, वहाँ आ जाती हैं । सिंहसेन राजा भी उन एक कम पाँच सौ देवियों की एक कम पाँच सौ माताओं को निवास के लिए कूटाकार-शाला में स्थान दे देता है । तदनन्तर सिंहसेना राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा -'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और विपुल अशनादिक ले जाओ तथा अनेकविध पुष्पों, वस्त्रों, गन्धों, मालाओं और अलंकारों को कूटाकार शाला में पहुँचाओ । कौटुम्बिक पुरुष भी राजा की आज्ञा के अनुसार सभी सामग्री पहुंचा देते हैं । तदनन्तर सर्व-प्रकार के अलंकारों से विभूषित उन एक कम पाँच सौ देवियों की एक कम पाँच सौ माताओं ने उस विपुल अशनादिक और सुरादिक सामग्री का आस्वादन किया और गान्धर्व तथा नाटक नर्तकों से उपगीयमान-प्रशस्यमान होती हुई सानन्द विचरने लगीं।
तत्पश्चात् सिंहसेन राजा अर्द्धरात्रि के समय अनेक पुरुषों के साथ, उनसे घिरा हुआ, जहाँ कूटाकारशाला थी वहाँ पर आया। आकर उसने कटाकारशाला के सभी दरवाजे बन्द करवा दिए । कटाकारशाला को चारों तरफ से आग लगवा दी । तदनन्तर राजा सिंहसेन के द्वारा आदीप्त की गई, जलाई गई, त्राण व शरण से रहित हुई एक कम पाँच सौ रानियों की एक कम पाँच सौ माताएं रुदन, क्रन्दन व विलाप करती हुई कालधर्म को प्राप्त हो गई। इस प्रकार के कर्म करने वाला, ऐसी विद्या-बुद्धि वाला, ऐसा आचरण करने वाला सिंहसेन राजा अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन करके ३४-सौ वर्ष की परम आयु भोगकर काल करके उत्कृष्ट २२ सागरोपम की स्थिति वाली ट्ठी नरकभूमि में नारक रूप से उत्पन्न हुआ । वही सिंहसेन राजा का जीव स्थिति के समाप्त होने पर वहाँ से कलकर इसी रोहीतक नगर में दत्त सार्थवाह की कृष्णश्री भार्या की कुक्षि में बालिका के रूप में उत्पन्न हुआ।
तब उस कृष्णश्री भार्या ने नौ मास परिपूर्ण होने पर एक कन्या को जन्म दिया । वह अन्यन्त कोमल हाथ
मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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