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आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक लिए मनौती मनाऊं । 'भद्रे ! मेरी भी यही ईच्छा है कि किसी प्रकार तुम्हारे जीवित रहने वाले पुत्र या पुत्री उत्पन्न हों।' उसने गंगदत्ता के उक्त प्रस्ताव का समर्थन किया।
तब सागरदत्त सार्थवाह की आज्ञा प्राप्त कर वह गंगदत्ता भार्या विविध प्रकार के पुष्प, वस्त्र, गंध, माला एवं अलंकार तथा विविध प्रकार की पूजा की सामग्री लेकर, मित्र, ज्ञाति, स्वजन, सम्बन्धी एवं परिजनों की महिलाओं के साथ अपने घर से नीकली और पाटलिखण्ड नगर के मध्य से होती हुई एक पुष्करिणी के समीप पहुँची । पुष्करिणी में प्रवेश किया । वहाँ जलमज्जन एवं जलक्रीड़ा कर कौतुक तथा मंगल प्रायश्चित्त को करके गीली साड़ी पहने हुए वह पुष्करिणी से बाहर आई । पुष्पादि पूजासामग्री को लेकर उम्बरदत्त यक्ष के यक्षायतन के पास पहुँची । यक्ष को नमस्कार किया । फिर लोमहस्तक लेकर उसके द्वारा यक्षप्रतिमा का प्रमार्जन किया । जलधारा से अभिषेक किया । कषायरंग वाले सुगन्धित एवं सुकोमल वस्त्र से उसके अंगों को पोंछा । श्वेत वस्त्र पहनाया, महार्ह, पुष्पारोहण, वस्त्रारोहण, गन्धारोहण, माल्यारोहण और चूर्णारोहण किया । धूप जलाकर यक्ष के सन्मुख घुटने टेककर पाँव में पड़कर इस प्रकार निवेदन किया-'जो मैं एक जीवित बालक या बालिका को जन्म दूँ तो याग, दान एवं भण्डार की वृद्धि करूँगी।' इस प्रकार-यावत् याचना करती है फिर जिधर से आयी थी उधर लौट जाती है।
तदनन्तर वह धन्वन्तरि वैद्य का जीव नरक से नीकलकर इसी पाटलिखण्ड नगर में गंगदत्ता भार्या की कुक्षि में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ । लगभग तीन मास पूर्ण हो जाने पर गंगदत्ता भार्या को यह दोहद उत्पन्न हुआ। 'धन्य हैं वे माताएं यावत् उन्होंने अपना जन्म और जीवन सफल किया है जो विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम
और सुरा आदि मदिराओं को तैयार करवाती हैं और अनेक मित्र, ज्ञाति आदि की महिलाओं से परिवृत्त होकर पाटलिखण्ड नगर के मध्य में से नीकलकर पुष्करिणी पर जाती हैं । जल स्नान व अशुभ-स्वप्न आदि के फल को विफल करने के लिए मस्तक पर तिलक व अन्य माङ्गलिक कार्य करके उस विपुल अशनादिक का मित्र, ज्ञातिजन
आदि की महिलाओं के साथ आस्वादनादि करती हुई दोहद को पूर्ण करती हैं। इस तरह विचार करके प्रातःकाल जाज्वल्यमान सूर्य के उदित हो जाने पर जहाँ सागरदत्त सार्थवाह था, वहाँ पर आकर सागरदत्त सार्थवाह से कहती
माताएं धन्य हैं जो यावत् उक्त प्रकार से अपना दोहद पूर्ण करती हैं । मैं भी अपने दोहद को पूर्ण करना चाहती हूँ।' सागरदत्त सार्थवाह भी दोहदपूर्ति के लिए गंगदत्ता भार्या को आज्ञा दे देता है।
सागरदत्त सार्थवाह से आज्ञा प्राप्त कर गंगदत्ता पर्याप्त मात्रा में अशनादिक चतुर्विध आहार तैयार करवाती है और उपस्कत आहार एवं छह प्रकार के मदिरादि पदार्थ तथा बहत सी पुष्पादि पूजासाम मित्र, ज्ञातिजन आदि की तथा अन्य महिलाओं को साथ लेकर यावत् स्नान तथा अशुभ स्वप्नादि के फल को विनष्ट करने के लिए मस्तक पर तिलक व अन्य माङ्गलिक अनुष्ठान करके उम्बरदत्त यक्ष के आयतन में आ जाती है । वहाँ पहले की ही तरह पूजा करती व धूप जलाती है । तदनन्तर पुष्करिणी-वावड़ी पर आ जाती है, वहाँ पर साथ में आने वाली मित्र, ज्ञाति आदि महिलाएं गंगदत्ता को सर्व अलङ्कारों से विभूषित करती हैं, तत्पश्चात् उन मित्रादि महिलाओं तथा अन्य महिलाओं के साथ उस विपुल अशनादिक तथा षड्विध सुरा आदि का आस्वादन करती हुई गंगदत्ता अपने दोहद-मनोरथ को परिपूर्ण करती है । इस तरह दोहद को पूर्ण कर वह वापिस अपने घर आ जाती है । तदनन्तर सम्पूर्णदोहदा, सन्मानितदोहदा, विनीतदोहदा, व्युच्छिन्नदोहदा, सम्पन्नदोहदा वह गंगदत्ता उस गर्भ को सुखपूर्वक धारण करती है।
तत्पश्चात् नौ मास परिपूर्ण होने पर उस गंगदत्ता ने एक बालक को जन्म दिया । माता-पिता ने स्थितिपतिता मनाया । फिर उसका नामकरण किया, 'यह बालक क्योंकि उम्बरदत्त यक्ष की मान्यता मानने से जन्मा है, अतः इसका नाम भी ‘उम्बरदत्त' ही हो । तदनन्तर उम्बरदत्त बालक पाँच धायमाताओं द्वारा गृहीत होकर वृद्धि को प्राप्त करने लगा । तदनन्तर सागरदत्त सार्थवाह भी विजयमित्र की ही तरह कालधर्म को प्राप्त हुआ । गंगदत्ता भी कालधर्म को प्राप्त हुई । इधर उम्बरदत्त को भी उज्झितकुमार की तरह राजपुरुषों ने घर से नीकाल दिया । उसका
मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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