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आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक पकड़वाकर ऊर्ध्वमुख गिराता है और गिराकर लोहे के दण्डे से मुख को खोलता है और खोलकर कितनेक को तप्त तांबा पिलाता है, कितनेक को रांगा, सीसक, चूर्णादिमिश्रित जल अथवा कलकल करता हुआ अत्यन्त उष्ण जल और क्षारयुक्त तैल पिलाता है तथा कितनों का इन्हीं से अभिषेक कराता है । कितनों को ऊर्ध्वमुख गिराकर उन्हें अश्वमूत्र हस्तिमूत्र यावत् भेड़ों का मूत्र पिलाता है । कितनों को अधोमुख गिराकर छल छल शब्द पूर्वक वमन कराता है और कितनों को उसी के द्वारा पीड़ा देता है । कितनों को हथकड़ियों बेड़ियों से, हडिबन्धनों से व निगड बन्धनों से बद्ध करता है । कितनों के शरीर को सिकोड़ता व मरोड़ता है । कितनों को सांकलों से बाँधता है, तथा कितनों का हस्तछेदन यावत् शस्त्रों से चीरता-फाडता है। कितनों को वेणुलताओं यावत् वृक्षत्वचा के चाबुकों से पिटवाता है।
कितनों को ऊर्ध्वमुख गिराकर उनकी छाती पर शिला व लक्कड़ रखवा कर उत्कम्पन कराता है, जिससे हड्डियाँ टूट जाएं । कितनों के चर्मरज्जुओं व सूत्ररज्जुओं से हाथों और पैरों को बँधवाता है, बंधवाकर कूए में उल्टा लटकवाता है, लटकाकर गोते खिलाता है । कितनों का असिपत्रों यावत् कलम्बचीरपत्रों से छेदन कराता है और उस पर क्षारमिश्रित तैल से मर्दन कराता है। कितनों के मस्तकों, कण्ठमणियों, घंटियों, कोहनियों, जानुओं तथा गुल्फों-गिट्टों में लोहे की कीलों को तथा बाँस की शलाकाओं को ठुकवाता है तथा वृश्चिककण्टकों-बिच्छु के काँटों को शरीर में प्रविष्ट कराता है।
कितनों के हाथ की अंगुलियों तथा पैर की अंगुलियों में मुद्गरों के द्वारा सूईयों तथा दम्भनों-को प्रविष्ट कराता है तथा भूमि को खुदवाता है । कितनों का शस्त्रों व नेहरनों से अङ्ग छिलवाता है और दर्भो, कुशाओं तथा आर्द्र चर्मों द्वारा बंधवाता है । तदनन्तर धूप में गिराकर उनके सूखने पर चड़ चड़ शब्दपूर्वक उनका उत्पाटन कराता है । इस तरह वह दुर्योधन चारकपालक इस प्रकार की निर्दयतापूर्ण प्रवृत्तियों को अपना कर्म, विज्ञान व सर्वोत्तम आचरण बनाए हुए अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन करके ३१ सौ वर्ष की परम आयु भोगकर कालमास में काल करके छठे नरक में उत्कृष्ट २२ सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नारक रूप में उत्पन्न हआ। सूत्र - ३०
वह दुर्योधन चारकपाल का जीव छठे नरक से नीकलकर इसी मथुरा नगरी में श्रीदाम राजा की बन्धुश्री देवी की कुक्षि में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ । लगभग नौ मास परिपूर्ण होने पर बन्धुश्री ने बालक को जन्म दिया । तत्पश्चात् बारहवे दिन माता-पिता ने नवजात बालक का नन्दिषेण नाम रखा । तदनन्तर पाँच धायमाताओं से सारसंभाल किया जाता हुआ नन्दिषेणकुमार वृद्धि को प्राप्त होने लगा। जब वह बाल्यावस्था को पार करके युवावस्था को प्राप्त हुआ तब युवराज पद से अलंकृत भी हो गया । राज्य और अन्तःपुर में अत्यन्त आसक्त नंदिषेणकुमार श्रीदाम राजा को मारकर स्वयं ही राज्यलक्ष्मी को भोगने एवं प्रजा का पालन करने की ईच्छा करने लगा । एतदर्थ कुमार नन्दिषेण श्रीदाम राजा के अनेक अन्तर, छिद्र अथवा विरह ऐसे अवसर की प्रतीक्षा करने लगा।
श्रीदाम नरेश के वध का अवसर प्राप्त न होने से कुमार नन्दिषेण ने किसी अन्य समय चित्र नामक अलंकारिक को बुलाकर कहा-देवानुप्रिय ! तुम श्रीदाम नरेश के सर्वस्थानों, सर्व भूमिकाओं तथा अन्तःपुर में स्वेच्छापूर्वक आ-जा सकते हो और श्रीदाम नरेश का बारबार क्षौरधर्म करते हो । अतः हे देवानुप्रिय ! यदि तुम श्रीदाम नरेश के क्षौरकर्म करने के अवसर पर उसकी गरदन में उस्तरा घुसेड़ दो तो मैं तुमको आधा राज्य दे दूंगा। तब तुम भी हमारे साथ उदार-प्रधान-कामभोगों का उपभोग करते हुए सानन्द समय व्यतीत कर सकोगे । चित्र नामक नाई ने कुमार नन्दिषेण के उक्त कथन को स्वीकार किया।
____ परन्तु चित्र अलंकारिक के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि यदि किसी प्रकार से श्रीदाम नरेश को इस षड्यन्त्र का पता लग गया तो न मालूम वे मुझे किस कुमौत से मारेंगे ? इस विचार से वह भयभीत हो उठा और एकान्त में गुप्त रूप से जहाँ महाराजा श्रीदाम थे, वहाँ आया । दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अञ्जलि कर विनय पूर्वक इस प्रकार बोला-'स्वामिन् ! निश्चय ही नन्दिषेण कुमार राज्य में आसक्त यावत् अध्युपपन्न होकर आपका
मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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