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आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक उठे । उसके अनुरूप क्रोध से दाँत पीसते हुए भोहें चढ़ाकर कोतवाल को बुलाते हैं और कहते हैं-देवानुप्रिय ! तुम जाओ और शालाटवी नामक चोरपल्ली को नष्ट-भ्रष्ट कर दो और उसके चोर सेनापति अभग्नसेन को जीवित पकड़कर मेरे सामने उपस्थित करो । महाबल राजा की आज्ञा को दण्डनायक विनयपूर्वक स्वीकार करता हुआ, दृढ़ बंधनों से बंधे हुए लोहमय कुसूलक आदि से युक्त कवच को धारण कर आयुधों और प्रहरणों से युक्त अनेक पुरुषों को साथ में लेकर, हाथों में फलक-ढाल बाँधे हुए यावत् क्षिप्रतूर्य के बजाने से महान् उत्कृष्ट महाध्वनि एवं सिंहनाद आदि के द्वारा समुद्र की सी गर्जना करते हुए, आकाश को विदीर्ण करते हुए पुरिमताल नगर के मध्य से नीकलकर शालाटवी चोरपल्ली की ओर जाने का निश्चय करता है।
तदनन्तर अभग्नसेन चोर सेनापति के गुप्तचरों को इस वृत्तान्त का पता लगा । वे सालाटवी चोरपल्ली में, जहाँ अभग्नसेन चोर सेनापति था, आए और दोनों हाथ जोडकर और मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके अभग्नसेन से इस प्रकार बोले-हे देवानुप्रिय ! पुरिमताल नगर में महाबल राजा ने महान् सुभटों के समुदायों के साथ दण्डनायक-कोतवाल को बुलाकर आज्ञा दी है कि-'तुम लोग शीघ्र जाओ, जाकर सालाटवी चोरपल्ली को नष्ट-भ्रष्ट कर दो और उसके सेनापति अभग्नसेन को जीवित पकड़ लो और पकड़कर मेरे सामने उपस्थित करो।' राजा की आज्ञा को शिरोधार्य करके कोतवाल योद्धाओं के समूह के साथ सालाटवी चोरपल्ली में आने के लिए रवाना हो चूका है । तदनन्तर उस अभग्नसेन सेनापति ने अपने गुप्तचरों की बातों को सुनकर तथा विचारकर अपने पाँच सौ चोरों को बुलाकर कहा-देवानुप्रियो ! पुरिमताल नगर के महाबल राजा ने आज्ञा दी है कि यावत् दण्डनायक ने चोरपल्ली पर आक्रमण करने का तथा मुझे जीवित पकड़ने को यहाँ आने का निश्चय कर लिया है, अतः उस दण्डनायक को सालाटवी चोर-पल्ली पहुंचने से पहले ही मार्ग में रोक देना हमारे लिए योग्य है । अभग्नसेन सेनापति के इस परामर्श को तथेति' ऐसा कहकर पाँच सौ चोरों ने स्वीकार किया।
तदनन्तर अभग्नसेन चोर सेनापति ने अशन, पान, खादिम और स्वादिम-अनेक प्रकार की स्वादिष्ट भोजन सामग्री तैयार कराई तथा पाँच सौ चोरों के साथ स्नानादि क्रिया कर दुःस्वप्नादि के फलों को निष्फल करने के लिए मस्तक पर तिलक तथा अन्य माङ्गलिक कृत्य करके भोजनशाला में उस विपुल अशनादि वस्तुओं तथा पाँच प्रकार की मदिराओं का यथारुचि आस्वादन, विस्वादन आदि किया । भोजन के पश्चात् योग्य स्थान पर आचमन किया, मुख के लेपादि को दूर कर, परम शुद्ध होकर, पाँच सौ चोरों के साथ आर्द्रचर्म पर आरोहण किया । दृढ़बन्धनों से बंधे हुए, लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को धारण करके यावत् आयुधों और प्रहरणों से सुसज्जित होकर हाथों में ढालें बाँधकर यावत् महान् उत्कृष्ट, सिंहनाद आदि शब्दों के द्वारा समुद्र के समान गर्जन करते हुए एवं आकाशमण्डल को शब्दायमान करते हुए अभग्नसेन ने सालाटवी चोरपल्ली से मध्याह्न के समय प्रस्थान किया । खाद्य पदार्थों को साथ लेकर विषम और दुर्ग-गहन वन में ठहरकर वह दण्डनायक की प्रतीक्षा करने लगा।
उसके बाद वह कोतवाल जहाँ अभग्नसेन चोर सेनापति था, वहाँ पर आता है, और आकर अभग्नसेन चोर सेनापति के साथ युद्ध में संप्रवृत हो जाता है । तदनन्तर, अभग्नसेन चोर सेनापति ने उस दण्डनायक को शीघ्र ही हतमथित कर दिया, वीरों का घात किया, ध्वजा पताका को नष्ट कर दिया, दण्डनायक का भी मानमर्दन कर उसे
और उसके साथियों को इधर उधर भगा दिया । तदनन्तर अभग्नसेन चोर सेनापति के द्वारा हत-मथित यावत् प्रतिषेधित होने से तेजोहीन, बलहीन, वीर्यहीन तथा पुरुषार्थ और पराक्रम से हीन हुआ वह दण्डनायक शत्रुसेना को परास्त करना अशक्य जानकर पुनः पुरिमताल नगर में महाबल नरेश के पास आकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर दसों नखों की अञ्जलि कर इस प्रकार कहने लगा-प्रभो ! चोर सेनापति अभग्नसेन ऊंचे, नीचे और दुर्ग-गहन वन में पर्याप्त खाद्य तथा पेय सामग्री के साथ अवस्थित है । अतः बहुल अश्वबल, गजबल, योद्धाबल
और रथबल, कहाँ तक कहूँ-चतुरङ्गिणी सेना के साक्षात् बल से भी वह जीते जी पकड़ा नहीं जा सकता है ! तब राजा ने सामनीति, भेदनीति व उपप्रदान नीति से उसे विश्वास में लाने के लिए प्रवृत्त हुआ । तदर्थ वह उसके शिष्यतुल्य, समीप में रहने वाले पुरुषों को तथा मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों को धन, स्वर्ण, रत्न
मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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