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आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक अध्ययन-३ - अभग्नसेन सूत्र-१८
तृतीय अध्ययन की प्रस्तावना पूर्ववत् । उस काल उस समय में पुरिमताल नगर था । वह भवनादि की अधिकता से तथा धन-धान्यादि से परिपूर्ण था। उस पुरिमताल नगर के ईशान-कोणमें अमोघदर्शी नामक उद्यान था उसमें अमोघदर्शी नामक यक्ष का एक यक्षायतन था । पुरिमताल नगर में महाबल नामक राजा राज्य करता था।
उस पुरिमताल नगर के ईशान कोण में सीमान्त पर स्थित अटवी में शालाटवी नाम की चोरपल्ली थी जो पर्वतीय भयंकर गुफाओं के प्रातभाग पर स्थित थी । बाँस की जाली की बनी हुई वाड़रूप प्राकार से घिरी हुई थी। छिन्न पर्वत के ऊंचे-नीचे गर्तरूप खाई वाली थी । उसमें पानी की पर्याप्त सुविधा थी । उसके बाहर दूर-दूर तक पानी अप्राप्य था । उसमें भागने वाले मनुष्यों के मार्गरूप अनेक गुप्तद्वार थे । जानकार व्यक्ति ही उसमें निर्गम कर सकता था । बहुत से मोष-चोरों से चुराई वस्तुओं को वापिस लाने के लिए उद्यत मनुष्यों द्वारा भी उसका पराजय नहीं किया जा सकता था । उस शालाटवी चोरपल्ली में विजय नाम का चोर सेनापति रहता था । वह महा अधर्मी था यावत् उसके हाथ सदा खून से रंगे रहते थे । उसका नाम अनेक नगरों में फैला हुआ था । वह शूरवीर, दृढ़प्रहारी साहसी, शब्दवेधी तथा तलवार और लाठी का अग्रगण्य योद्धा था । वह सेनापति उस चोरपल्ली में पाँच सौ चोरों का स्वामित्व, अग्रेसरत्व, नेतृत्व, बड़प्पन करता हुआ रहता था। सूत्र - १९
तदनन्तर वह विजय नामक चोर सेनापति अनेक चोर, पारदारिक, ग्रन्थिभेदक, सन्धिच्छेदक, धूर्त वगैरह लोग तथा अन्य बहुत से छिन्न, भिन्न तथा शिष्टमण्डली से बहिष्कृत व्यक्तियों के लिए बाँस के वन के समान गोपक या संरक्षक था । वह विजय चोर सेनापति पुरिमताल नगर के ईशान कोणगत जनपद को अनेक ग्रामों को नष्ट करने से, अनेक नगरों का नाश करने से, गाय आदि पशुओं के अपहरण से, कैदियों को चुराने से, पथिकों को लूटने से, खात-सेंध लगाकर चोरी करने से, पीड़ित करता हुआ, विध्वस्त करता हुआ, तर्जित, ताडित, स्थान-धन तथा धान्यादि से रहित करता हआ तथा महाबल राजा के राजदेयकर-महसूल को भी बारंबार स्वयं ग्रहण करता हआ समय व्यतीत करता था।
उस विजय नामक चोर सेनापति की स्कन्दश्री नामकी परिपूर्ण पाँच इन्द्रियों से युक्त सर्वांगसुन्दरी पत्नी थी। उस विजय चोर सेनापति का पुत्र एवं स्कन्दश्री का आत्मज अभग्नसेन नाम का एक बालक था, जो अन्यून पाँच इन्द्रियों वाला तथा विशेष ज्ञान रखने वाला और बुद्धि की परिपक्वता से युक्त यौवनावस्था को प्राप्त किये हुए था । उस काल तथा उस समय में पुरिमताल नगर में श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे । परिषद् नीकली । राजा भी गया । भगवान ने धर्मोपदेश दिया । राजा तथा जनता वापिस लौट आये।
उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर के प्रधान शिष्य गौतम स्वामी राजमार्ग में पधारे । उन्होंने बहुत से हाथियों, घोड़ों तथा सैनिकों की तरह शस्त्रों से सुसज्जित और कवच पहने हुए अनेक पुरुषों को देखा । उन सब के बीच अवकोटक बन्धन से युक्त उद्घोषित एक पुरुष को भी देखा । राजपुरुष उस पुरुष को चत्वर पर बैठाकर उसके आगे आठ लघुपिताओं को मारते हैं । तथा कशादि प्रहारों से ताड़ित करते हुए दयनीय स्थिति को प्राप्त हुए उस पुरुष को उसके ही शरीर में से काटे गए माँस के छोटे-छोटे टुकड़ों को खिलाते हैं और रुधिर का पान कराते हैं । द्वितीय चत्वर पर उसकी आठ लघुमाताओं को उसके समक्ष ताड़ित करते हैं और माँस खिलाते तथा रुधिरपान कराते हैं । तीसरे चत्वर पर आठ महापिताओं को, चौथे चत्वर पर आठ महामाताओं को, पाँचवें पर पुत्रों को, छठे पर पुत्रवधूओं को, सातवें पर जामाताओं को, आठवें पर लड़कियों को, नवमें पर नप्ताओं को, दसवें पर लड़के और लड़कियों की लड़कियों को, ग्यारहवे पर नप्तृकापतियों को, तेरहवें पर पिता की बहिनों के पतियों को, चौदहवें पर पिता की बहिनों को, पन्द्रहवें पर माता की बहिनों के पतियों को, सोलहवें पर माता की बहिनों को, सत्रहवें पर मामा की स्त्रियों को, अठारहवें पर शेष मित्र, ज्ञाति, स्वजन सम्बन्धी और परिजनों को उस पुरुष के
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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