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आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक हुआ कामध्वजा वेश्या के अनेक अन्तर, छिद्र व विवर की गवेषणा करता हुआ जीवनयापन कर रहा था । तदनन्तर वह उज्झितक कुमार किसी अन्य समय में कामध्वजा गणिका के पास जाने का अवसर प्राप्त कर गुप्तरूप से उसके घर में प्रवेश करके कामध्वजा वेश्या के साथ मनुष्य सम्बन्धी उदार विषयभोगों का उपभोग करता हुआ जीवनयापन करने लगा।
इधर किसी समय बलमित्र नरेश, स्नान, बलिकर्म, कौतुक, मंगल प्रायश्चित्त के रूप में मस्तक पर तिलक एवं मांगलिक कार्य करके सर्व अलंकारों से अलंकृत हो, मनुष्यों के समूह से घिरा हुआ कामध्वजा वेश्या के घर गया । वहाँ उसने कामध्वजा वेश्या के साथ मनुष्य सम्बन्धी भोगों का उपभोग करते हुए उज्झितक कुमार को देखा। देखते ही वह क्रोध से लाल-पीला हो गया । मस्तक पर त्रिवलिक भृकुटि चढ़ाकर अपने अनुचरों के द्वारा उज्झितक कमार को पकडवाया । यष्टि, मष्टि, जान, कर्पर के प्रहारों से उसके शरीर को चूर-चर और मथित करके अवकोटक बन्धन से बाँधा और बाँधकर 'इसी प्रकार से यह बध्य है। ऐसी आज्ञा दी । हे गौतम ! इस प्रकार वह उज्झितक कुमार पूर्वकृत् पापमय कर्मों का फल भोग रहा है । सूत्र-१७
हे प्रभो ! यह उज्झितक कुमार यहाँ से कालमास में काल करके कहाँ जाएगा? और कहाँ उत्पन्न होगा ? गौतम ! उज्झितक कुमार २५ वर्ष की पूर्ण आयु को भोगकर आज ही त्रिभागविशेष दिन में शूली द्वारा भेद को प्राप्त होकर कालमास में काल करके रत्नप्रभा में नारक रूप में उत्पन्न होगा । वहाँ से नीकलकर सीधा इसी जम्बू द्वीप में भारतवर्ष के वैताढ्य पर्वत के पादमूल में वानर के रूप में उत्पन्न होगा । वहाँ पर बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त होता हुआ वह पशु सम्बन्धी भोगों में मूर्च्छित, गृद्ध, भोगों के स्नेहपाश में जकड़ा हुआ और भोगों ही में मन को लगाए रखने वाला होगा । वह उत्पन्न हुए वानरशिशुओं का अवहनन किया करेगा । ऐसे कुकर्म में तल्लीन हुआ वह काल-मास में काल करके इसी जम्बूद्वीप में इन्द्रपुर नामक नगर में गणिका के घर में पुत्र रूप में उत्पन्न होगा । माता-पिता उत्पन्न होते ही उस बालक को वर्द्धितक बना देंगे और नपुंसक के कार्य सिखलाएंगे। बारह दिन के व्यतीत हो जाने पर उसके माता-पिता उसका प्रियसेन' यह नामकरण करेंगे । बाल्यभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त तथा विज्ञ, एवं बुद्धि आदि की परिपक्व अवस्था को उपलब्ध करने वाला यह प्रियसेन नपुंसक रूप, यौवन व लावण्य के द्वारा उत्कृष्ट-उत्तम और उत्कृष्ट शरीर वाला होगा । तदनन्तर वह प्रियसेन नपुंसक इन्द्रपुर नगर के राजा, ईश्वर यावत् अन्य मनुष्यों को अनेक प्रकार के प्रयोगों से, मन्त्रों से मन्त्रित चूर्ण, भस्म आदि से, हृदय को शून्य कर देने वाले, अदृश्य कर देने वाले, वश में करने वाले, प्रसन्न कर देने वाले और पराधीन कर देने वाले प्रयोगों से वशीभूत करके मनुष्य सम्बन्धी उदार भोगों को भोगता हआ समययापन करेगा। इस तरह वह प्रियसेन नपुंसक इन पापपूर्ण कामों में ही बना रहेगा।
वह बहत पापकर्मों का उपार्जन करके १२१ वर्ष की परम आयु को भोगकर मृत्यु को प्राप्त होकर इस रत्नप्रभा नरक में नारक के रूप में उत्पन्न होगा । वहाँ से सरीसृप आदि प्राणियों की योनियों में जन्म लेगा । वहाँ से उसका संसार-भ्रमण मृगापुत्र की तरह होगा यावत् पृथिवीकाय आदि में जन्म लेगा । वहाँ से इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष की चम्पा नगरी में भैंसा के रूप में जन्म लेगा । वहाँ गोष्ठिकों के द्वारा मारे जाने पर उसी नगरी के श्रेष्ठि कुल में पुत्ररूप में उत्पन्न होगा । यहाँ पर बाल्यावस्था को पार करके यौवन अवस्था को प्राप्त होता हुआ वह तथारूप स्थविरों के पास शंका कांक्षा आदि दोषों से रहित बोधिलाभ को प्राप्त कर अनगार धर्म को ग्रहण करेगा। वहाँ से कालमास में कालकर सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा । यावत् मृगापुत्र के समान कर्मों का अन्त करेगा।
अध्ययन-२-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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