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आगम सूत्र-८, अंगसूत्र-८, 'अंतकृत् दशा'
वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक
वर्ग-३ अध्ययन-८ सूत्र-१३
भगवन् ! तृतीय वर्ग के आठवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? हे जंबू ! उस काल, उस समय में द्वारका नगरीमें प्रथम अध्ययनमें किये गये वर्णन के अनुसार यावत् अरिहंत अरिष्टनेमि भगवान पधारे । उस काल, उस समय भगवान नेमिनाथ के अंतेवासी-शिष्य छ मुनि सहोदर भाई थे । वे समान आकार, त्वचा और समान अवस्थावाले प्रतीत होते थे । उन का वर्ण नीलकमल, महिष के शृंग के अन्तर्वर्ती भाग, गुलिका-रंग विशेष
और अलसी समान था । श्रीवत्स से अंकित वक्ष वाले और कुसुम के समान कोमल और कुंडल के समान धुंघराले बालों वाले वे सभी मुनि नलकूबर के समान प्रतीत होते थे । तब वे छहों मुनि जिस दिन मुंडित होकर आगार से अनगार धर्म में प्रव्रजित हए, उसी दिन अरिहंत अरिष्टनेमि को वंदना नमस्कार कर इस प्रकार बोले-'हे भगवन् ! आपकी आज्ञा पाकर हम जीवन पर्यन्त निरन्तर बेले-बेले तप द्वारा आत्मा कद भावित करते हुए विचरण करें ।' अरिहंत अरिष्टनेमिने कहा-देवानुप्रियों! जैसे तुम्हें सुख हो, करो, शुभ कर्म करनेमें विलम्ब नहीं करना चाहिए । तब भगवान की आज्ञा पाकर उन्होंने जीवनभर के लिए बेले-बेले की तपस्या करते हुए यावत् विचरण करने लगे।
तदनन्तर उन छहों मुनियों ने अन्यदा किसी समय, बेले की तपस्या के पारणे के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया और गौतम स्वामी के समान यावत् निवेदन करते हैं-भगवन् ! हम बेले की तपस्या के पारणे में आपकी आज्ञा लेकर दो-दो के तीन संघाड़ों से द्वारका नगरी में यावत् भिक्षा हेतु भ्रमण करना चाहते हैं । तब उन छहों मुनियों ने अरिहंत अरिष्टनेमि की आज्ञा पाकर प्रभु को वंदन नमस्कार किया । वंदन नमस्कार कर वे भगवान् अरिष्टनेमि के पास से सहस्राम्रवन उद्यान से प्रस्थान करते हैं। फिर वे दो दो के तीन संघाटकों में सहज गति से यावत् भ्रमण करने लगे।
उन तीन संघाटकों में से एक संघाटक द्वारका नगरी के ऊंच-नीच-मध्यम घरों में, एक घर से दूसरे घर, भिक्षाचर्या के हेतु भ्रमण करता हुआ राजा वसुदेव की महारानी देवकी के प्रासाद में प्रविष्ट हुआ । उस समय वह देवकी रानी उन दो मुनियों के एक संघाड़े को अपने यहाँ आता देखकर हृष्टतुष्ट होकर यावत् आसन से उठकर वह सात-आठ कदम मुनियुगल के सम्मुख गई। सामने जाकर उसने तीन बार दक्षिण की ओर से उनकी प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर उन्हें वन्दन-नमस्कार किया । जहाँ भोजनशाला थी वहाँ आई । भोजनशाला में आकर सिंहकेसर मोदकों से एक थाल भरा और थाल भर कर उन मुनियों को प्रतिलाभ दिया । पुनः वन्दन-नमस्कार करके उन्हें प्रतिविसर्जित किया । पश्चात उन छह सहोदर साधओं में से दसरा संघाटक भी देवकी के प्रासाद में 3 उन्हें प्रति विसर्जित किया । इसके बाद मुनियों का तीसरा संघाटक आया यावत् उसे भी देवकी देवी प्रतिलाभ देकर वह इस प्रकार बोली-''देवानुप्रियो ! क्या कृष्ण वासुदेव की इस बारह योजन लम्बी, नव योजन चौड़ी प्रत्यक्ष स्वर्गपुरी के समान द्वारका नगरी में श्रमण निर्ग्रन्थों को यावत् आहार-पानी के लिए जिन कुलों में पहले आ चूके हैं, उन्हीं कुलों में पुनः आना पड़ता है ?''
देवकी द्वारा इस प्रकार कहने पर वे मुनि इस प्रकार बोले-''देवानुप्रिये ! ऐसी बात तो नहीं है कि कृष्ण वासुदेव की यावत् प्रत्यक्ष स्वर्ग के समान, इस द्वारका नगरी में श्रमण-निर्ग्रन्थ उच्च-नीच-मध्यम कुलों में यावत् भ्रमण करते हुए आहार-पानी प्राप्त नहीं करते । और मुनिजन भी जिन घरों से एक बार आहार ले आते हैं, उन्हीं घरों से दूसरी या तीसरी बार आहारार्थ नहीं जाते हैं । "देवानुप्रिये ! हम भद्दिलपुर नगरी के नाग गाथापति के पुत्र
और उनकी सुलसा भार्या के आत्मज छह सहोदर भाई हैं । पूर्णतः समान आकृति वाले यावत् हम छहों भाइयों ने अरिहंत अरिष्टनेमि के पास धर्म-उपदेश सूनकर संसार-भय से उद्विग्न एवं जन्ममरण से भयभीत हो मुंडित होकर यावत् श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की । उसी दिन अरिहंत अरिष्टनेमि को वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार का अभिग्रह करने की आज्ञा चाही-हे भगवन् ! आपकी अनुज्ञा पाकर हम जीवन पर्यन्त बेले-बेले की तपस्या से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरना चाहते हैं ।'' यावत् प्रभु ने कहा-''देवानुप्रियों ! जिससे तुम्हें सुख हो
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अंतकृद्दशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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