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आगम सूत्र- ८, अंगसूत्र- ८, ' अंतकृत् दशा '
वर्ग / अध्ययन / सूत्रांक
वर्ग -६
सूत्र - २३
भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने छठे वर्ग के क्या भाव कहे हैं ? ' हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने अष्टम अंग अंतगडदशा के छठे वर्ग के सोलह अध्ययन कहे हैं, जो इस प्रकार हैं
सूत्र २४-२५
मकाई, किंकम, मुदगरपाणि, काश्यप, क्षेमक, धृतिधर, कैलाश, हरिचन्दन, वारत्त, सुदर्शन, पुण्यभद्र, सुमनभद्र, सुप्रतिष्ठित, मेघकुमार, अतिमुक्त कुमार और अलक्क कुमार । वर्ग-६ अध्ययन १, २
सूत्र - २६
भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने छट्ठे वर्ग के १६ अध्ययन कहे हैं तो प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल उस समय में राजगृह नगर था । वहाँ गुणशील नामक चैत्य था । श्रेणिक राजा थे । वहाँ मकाई नामक गाथापति रहता था, जो अत्यन्त समृद्ध यावत् अपरिभूत था । उस काल उस समय में धर्म की आदि करने वाले श्रमण भगवान महावीर गुणशील उद्यान में पधारे । परिषद् दर्शनार्थ एवं धर्मोपदेश-श्रवणार्थ आई । मकाई गाथापति भी भगवतीसूत्र में वर्णित गंगदत्त के वर्णनानुसार अपने घर से नीकला । धर्मोपदेश सूनकर वह विरक्त हो गया । घर आकर ज्येष्ठ पुत्र को घरका भार सौंपा और स्वयं हजार पुरुषों से उठाई जाने वाली शिबिका में बैठकर श्रमणदीक्षा अंगीकार करने हेतु भगवान की सेवा में आया । यावत् वह अनगार हो गया । ईर्या आदि समितियों से युक्त एवं गुप्तियों से गुप्त ब्रह्मचारी बन गया ।
इसके बाद मकाई मुनि ने श्रमण भगवान महावीर के गुणसंपन्न तथा वेशसम्पन्न स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और स्कंदक के समान गुणरत्नसंवत्सर तप का आराधन किया। सोलह वर्ष तक दीक्षापर्याय में रहे। अन्त में विपुलगिरि पर्वत पर स्कन्दक के समान ही संथारादि करके सिद्ध हो गए। किंकम भी मकाई के समान ही दीक्षा लेकर विपुलाचल पर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए ।
वर्ग-६ अध्ययन- ३
सूत्र - २७
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उस काल उस समय में राजगृह नगर था । गुणशीलक उद्यान था । श्रेणिक राजा थे । चेलना रानी थी । 'अर्जुन' नाम का एक माली रहता था। उसकी पत्नी बन्धुमती थी, जो अत्यन्त सुन्दर एवं सुकुमार थी अर्जुन माली का राजगृह नगर के बाहर एक बड़ा पुष्पाराम था। वह पुष्पोद्यान कहीं कृष्ण वर्ण का था, यावत् समुदाय की तरह प्रतीत हो रहा था उसमें पाँचों वर्णों के फूल खिले हुए थे। वह बगीचा इस भाँति हृदय को प्रसन्न एवं । प्रफुल्लित करने वाला अतिशय दर्शनीय था। उस पुष्पाराम फूलवाड़ी के समीप ही मुद्गरपाणि यक्ष का यक्षायतन था, जो उस अर्जुनमाली के पुरखाओं से चली आई कुलपरम्परा से सम्बन्धित था । वह 'पूर्णभद्र' चैत्य के समान पुराना, दिव्य एवं सत्य प्रभाववाला था। उसमें मुद्गरपाणि नामक यक्ष की एक प्रतिमा थी, जिसके हाथ में एक हजार पल-परिमाण भारवाला लोहे का एक मुद्गर था ।
वह अर्जुनमाली बचपन से ही मुद्गरपाणि यक्ष का उपासक था । प्रतिदिन बाँस की छबड़ी लेकर वह राजगृह नगर के बाहर स्थित अपनी उस फूलवाड़ी में जाता था और फूलों को चुन-चुन कर एकत्रित करता था । फिर उन फूलों में से उत्तम उत्तम फूलों को छाँटकर उन्हें उस मुद्गरपाणि यक्ष के समक्ष चढ़ाता था । इस प्रकार वह उत्तमोत्तम फूलों से उस यक्ष की पूजा-अर्चना करता और भूमि पर दोनों घुटने टेककर उसे प्रणाम करता । इसके बाद राजमार्ग के किनारे बाजार में बैठकर उन फूलों को बेचकर अपनी आजीविका उपार्जन किया करता था उस राजगृह नगर में 'ललिता' नाम की एक गोष्ठी थी । वह धन-धान्यादि से सम्पन्न थी तथा वह बहुतों से
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (अंतकृद्दशा)" आगमसूत्र - हिन्द-अनुवाद”
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