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आगम सूत्र ७, अंगसूत्र- ७, 'उपासकदशा '
[७] उपासकदशा अंगसूत्र - ७- हिन्दी अनुवाद
अध्ययन- १ - आनंद
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अध्ययन / सूत्रांक
सूत्र - १
उस काल, उस समय में, चम्पा नामक नगरी थी, पूर्णभद्र चैत्य था । (वर्णन औपपातिक सूत्र समान) । सूत्र - २, ३
उस काल उस समय आर्यसुधर्मा समवसृत हुए। आर्य सुधर्मा के ज्येष्ठ अन्तेवासी आर्य जम्बू नामक अनगार ने-पूछा छठे अंग नायाधम्मकहाओ का जो अर्थ बतलाया, वह मैं सून चूका हूँ। भगवान ने सातवें अंग उपासकदशा का क्या अर्थ व्याख्यात किया ? जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने सातवे अंग उपासकदशा के दस अध्ययन प्रज्ञप्त किये । आनन्द, कामदेव, चुलनीपिता, सुरादेव, चुल्लशतक, कुंडकौलिक, सद्दालपुत्र, महाशतक, नन्दिनीपिता, शालिहीपिता ।
सूत्र - ४
भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने सातवे अंग उपासकदशा के जो दस अध्ययन व्याख्यात किए, उनमें उन्होंने पहले अध्ययन का क्या अर्थ- कहा ?
सूत्र ५
जम्बू ! उस काल, उस समय, वाणिज्यग्राम नगर था। उस के बाहर ईशान कोण में दूतीपलाश चैत्य था । जितशत्रु वहाँ का राजा था। वहाँ वाणिज्यग्राम में आनन्द नामक गाथापति था जो धनाढ्य यावत् अपरिभूत था । आनन्द गाथापति का चार करोड़ स्वर्ण खजाने में, चार करोड़ स्वर्ण व्यापार में, चार करोड़ स्वर्ण धन, धान्य आदि में लगा था। उसके चार व्रज गोकुल थे। प्रत्येक गोकुल में दस हजार गायें थीं। आनन्द गाथापति बहुत से राजायावत् सार्थवाह के अनेक कार्यों में, कारणों में, मंत्रणाओं में, पारिवारिक समस्याओं में, गोपनीय बातों में, एकान्त में विचारणीय-व्यवहारों में पूछने योग्य एवं सलाह लेने योग्य व्यक्ति था । वह परिवार का मेढ़ि यावत् सर्व-कार्यवर्धापक था ।
आनन्द गाथापति की शिवनन्दा नामक पत्नी थी, वह परिपूर्ण अंग वाली यावत् सर्वांगसुन्दरी थी। आनन्द गाथापति की वह इष्ट-एवं अनुरक्त थी। पति के प्रतिकूल होने पर भी वह कभी रुष्ट नहीं होती थी । वह अपने के साथ इष्ट-प्रिय सांसारिक कामभोग भोगती हुई रहती थी । वाणिज्य ग्राम नगर के बाहर कोल्लाक नामक सन्निवेश था–वह सन्निवेश समृद्धिवान्, निरुपद्रव, दर्शनीय, सुंदर यावत् मनका प्रसन्नता देने वाला था । वहाँ कोल्लाक सन्निवेश में आनन्द गाथापति के अनेक मित्र, ज्ञातिजन - स्वजातीय लोग, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन-आदि निवास करते थे, जो समृद्ध एवं सुखी थे ।
उस काल और समय में श्रमण भगवंत महावीर पधारे। पर्षदा नीकली । वंदन करके वापस लौटी। कोणिक राजा कि तरह जितशत्रु राजा भी नीकला । वंदन यावत् पर्युपासना की । तत्पश्चात् आनंद गृहपति ने भगवंत महावीर के आने की बात सूनी । अरिहंत भगवंतों का नाम श्रवण भी दुर्लभ है फिर वंदन नमस्कार का तो कहना ही क्या ? इसीलिए मैं वहाँ जाऊं यावत् भगवंत की पर्युपासना करुं । ऐसा सोचकर शुद्ध एवं सभा में पहनने लायक वस्त्र धारण करके, अल्प एवं महामूल्यवान अलंकार धारण करके आनन्द गृहपति अपने घरसे नीकला। कोरंट पुष्पों की माला से युक्त छत्र धारण किया हुआ और जनसमूह से परिवृत्त होकर चलता चलता वह वाणिज्य ग्रामनगर के बीचोंबीच से नीकलकर जहाँ दूतिपलाश चैत्य था। जहाँ भगवान महावीर थे वहाँ आकर, भगवंत की तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दन- नमस्कार यावत् पर्युपासना करता है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (उपासकदशा) आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद"
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