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________________ आगम सूत्र ७, अंगसूत्र- ७, 'उपासकदशा ' अध्ययन / सूत्रांक अर्हत्, केवली आएंगे । भगवान ने सकडालपुत्र को पर्युपासना तक सारा वृत्तान्त कहा। फिर पूछा- सकडालपुत्र ! क्या ऐसा हुआ ? सकडालपुत्र बोला- ऐसा ही हुआ । तब भगवान ने कहा- सकडालपुत्र ! उस देव ने मंखलिपुत्र गोशालक को लक्षित कर वैसा नहीं कहा था । श्रमण भगवान महावीर द्वारा यों कहे जाने पर आजीविकोपासक सकडालपुत्र के मन में ऐसा विचार आया- श्रमण भगवान महावीर ही महामाहन, उत्पन्न ज्ञान, दर्शन के धारक तथा सत्कर्म-सम्पत्ति-युक्त हैं । अतः मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं श्रमण भगवान महावीर को वन्दन - नमस्कार कर प्रातिहारिक पीठ, फलक हेतु आमंत्रित करूँ । श्रमण भगवान महावीर को वन्दन - नमस्कार किया और बोलाभगवन् ! पोलासपुर नगर के बाहर मेरी पाँच सौ कुम्हारगिरि की कर्मशालाएं हैं। आप वहाँ प्रातिहारिक पीठ, संस्तारक ग्रहण कर बिराजे । भगवान महावीर ने आजीविकोपासक सकडलापुत्र का यह निवेदन स्वीकार किया तथा उसकी पाँच सौ कुम्हारगिरि की कर्मशालाओं में प्रासुक, शुद्ध प्रातिहारिक पीठ, फलक, संस्तारक ग्रहण कर भगवान अवस्थित हुए । सूत्र - ४४ एक दिन आजीविकोपासक सकडालपुत्र हवा लगे हुए मिट्टी के बर्तन कर्मशाला के भीतर से बाहर लाया और उसने उन्हें धूप में रखा । भगवान महावीर ने आजीविकोपासक सकडलापुत्र से कहा- सकडालपुत्र ! ये मिट्टी के बर्तन कैसे बने ? आजीविकोपासक सकडालपुत्र बोला- भगवन् ! पहले मिट्टी की पानी के साथ गूंथा जाता है, फिर राख और गोबर के साथ उसे मिलाया जाता है, उसे चाक पर रखा जाता है, तब बहुत से करवे, यावत् कूंपे बनाए जाते हैं । तब श्रमण भगवान महावीर ने पूछा- सकडालपुत्र ! ये मिट्टी के बर्तन क्या प्रयत्न, पुरुषार्थ एवं उद्यम द्वारा बनते हैं, अथवा उसके बिना बनते हैं ? आजीविकोपासक सकडालपुत्र ने श्रमण भगवान महावीर से कहा- भगवन् प्रयत्न, पुरुषार्थ तथा उद्यम के बिना बनते हैं प्रयत्न, पुरुषार्थ आदि का कोई स्थान नहीं है, सभी भाव-नियत हैं तब श्रमण भगवान महावीर ने कहा- सकडालपुत्र ! यदि कोई पुरुष तुम्हारे धूप में सुखाए हुए मिट्टी के बर्तनों को चुरा ले या यावत् बहार डाल दे अथवा तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग भोगे, तो उस पुरुष को तुम क्या दंड दोगे ? सकडालपुत्र बोला- भगवन् ! मैं उसे फटकारूँगा या पीहूँगा या यावत् असमय में ही उसके प्राण ले लूँगा। भगवान महावीर बोले- सकडालपुत्र ! यदि उद्यम यावत् पराक्रम नहीं है। सर्वभाव निश्चित है तो कोई पुरुष तुम्हारे धूप में सुखाए हुए मिट्टी के बर्तनों को नहीं चुराता है न उन्हें उठाकर बाहर डालता है और न तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग ही भोगता है, न तुम उस पुरुष को फटकारते हो, न पीटते हो न असमय में ही उसके प्राण लेते हो। यदि तुम मानते हो कि वास्तव में कोई पुरुष तुम्हारे धूप में सुखाए मिट्टी के बर्तनों को यावत् उठाकर बाहर डाल देता है अथवा तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग भोगता है, तुम उस पुरुष को फटकारते हो या यावत् असमय में ही उसके प्राण ले लेते हो, तब तुम प्रयत्न, पुरुषार्थ आदि के न होने की तथा होने वाले सब कार्यों के नियत होने की जो बात कहते हो, वह असत्य है । इससे आजीविकोपासक सकडालपुत्र को संबोध प्राप्त हुआ। सकडालपुत्र ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन - नमस्कार किया और उनसे कहा- भगवन् ! मैं आपसे धर्म सूनना चाहता । तब श्रमण भगवान महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र को तथा उपस्थित परीषद् को धर्मोपदेश दिया । सूत्र ४५ आजीविकोपासक सकडालपुत्र श्रमण भगवान महावीर से धर्म सूनकर अत्यन्त प्रसन्न एवं संतुष्ट हुआ और उसने आनन्द की तरह श्रावक-धर्म स्वीकार किया। विशेष यह कि सकडालपुत्र के परिग्रह के रूप में एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थी, एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएं व्यापार में लगी थीं तथा एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएं घर के साधन-सामग्री में लगी थीं । उसके एक गोकुल था, जिसमें दस हजार गायें थीं । मुनि दीपरत्नसागर कृत् (उपासकदशा) आगमसूत्र हिन्द-अनुवाद" Page 23
SR No.034674
Book TitleAgam 07 Upasakdasha Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 07, & agam_upasakdasha
File Size2 MB
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