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आगम सूत्र ७, अंगसूत्र-७, 'उपासकदशा'
अध्ययन/ सूत्रांक युक्ति तथा उत्तर द्वारा निरुत्तर कर देते हैं तो आर्यो ! द्वादशांगरूप गणिपिटक का अध्ययन करने वाले श्रमण निर्ग्रन्थ तो अन्य मतानुयायियों को अर्थ द्वारा निरुत्तर करने में समर्थ हैं ही । श्रमण भगवान महावीर का यह कथन उन साधु-साध्वीयों ने ऐसा ही है भगवन् !' यों कहकर स्वीकार किया । श्रमणोपासक कुंडकोलिक ने श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया, प्रश्न पूछे, समाधान प्राप्त किया तथा जिस दिशा से वह आया था, उसी दिशा की ओर लौट गया। भगवान महावीर अन्य जनपदों में विहार कर गए। सूत्र -४०
तदनन्तर श्रमणोपासक कुंडकोलिक को व्रतों की उपासना द्वारा आत्म-भावित होते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए । जब पन्द्रहवा वर्ष आधा व्यतीत हो चूका था, एक दिन आधी रात के समय उसके मन में विचार आया, जैसा कामदेव के मन में आया था । उसी की तरह अपने बड़े पुत्र को अपने स्थान पर नियुक्त कर वह भगवान महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति के अनुरूप पोषधशाला में उपासना-रत रहने लगा। उसने ग्यारह उपासकप्रतिमाओं की आराधना की। अन्त में वह देह-त्याग कर वह अरुणध्वज विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ । यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा।
अध्ययन-६ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उपासकदशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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