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आगम सूत्र ७, अंगसूत्र-७, ‘उपासकदशा ’
अध्ययन/ सूत्रांक मेरे आगे मार डाला । उसके मांस और रक्त से मेरे शरीर सींचा-छींटा, जो मेरे मंझले पुत्र को घर से ले आया, जो मेरे छोटे पुत्र को घर से ले आया, उसी तरह उसके मांस और रक्त से मेरा शरीर सींचा, जो देव और गुरु सदृश पूजनीय, मेरे हितार्थ अत्यन्त दुष्कर कार्य करने वाली, अति कठिन क्रियाएं करने वाली मेरी माता भद्रा सार्थवाही को भी घर से लाकर मेरे सामने मारना चाहता है । इसलिए, अच्छा यही है, मैं इस पुरुष को पकड़ लूँ । यों विचारकर वह पकड़ने के लिए दौड़ा । इतने में देव आकाश में उड़ गया । चुलनीपिता के पकड़ने को फैलाए हाथों में खम्भा आ गया । वह जोर-जोर से शोक करने लगा ।
भद्रा सार्थवाही ने जब वह कोलाहल सूना, तो जहाँ श्रमणोपासक चुलनीपिता था, वहाँ वह आई, उससे बोली- पुत्र ! तुम जोर-जोर से यों क्यों चिल्लाए ? अपनी माता भद्रा सार्थवाही से श्रमणोपासक चुलनीपिता ने कहा - माँ ! न जाने कौन पुरुष था, जिसने अत्यन्त क्रुद्ध होकर मुझसे कहा- मृत्यु को चाहने वाले श्रमणोपासक चुलनीपिता ! यदि तुम आज शील का त्याग नहीं करोगे, भंग नहीं करोगे तो तुम आर्त्तध्यान एवं विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही प्राणों से हाथ धो बैठोगे । उस पुरुष द्वारा यों कहे जाने पर भी मैं निर्भीकता के साथ अपनी उपासन में नीरत रहा । जब उस पुरुष ने मुझे निर्भयतापूर्वक उपासनारत देखा तो उसने मुझे दूसरी बार, तीसरी बार फिर कहा-श्रमणोपासक चुलनीपिता ! जैसा मैंने तुम्हें कहा है, मैं तुम्हारे शरीर को मांस और रक्त से सींचता हूँ और उसने वैसा ही किया । मैंने वेदना झेली । छोटे पुत्र के मांस और रक्त से शरीर सींचने तक सारी घटना उसी रूप में घटित हुई । मैं वह तीव्र वेदना सहता गया ।
उस पुरुष ने जब मुझे नीड़र देखा तो चौथी बार उसने कहा- मौत को चाहने वाले श्रमणोपासक चुलनीपिता ! तुम यदि अपने व्रत का भंग नहीं करते हो तो आज प्राणों से हाथ धो बैठोगे । उसके द्वारा यों कहे जाने पर भी मैं निर्भीकतापूर्वक धर्म- ध्यान में स्थित रहा । उस पुरुष ने दूसरी बार, तीसरी बार फिर कहा - श्रमणोपासक चुलनीपिता ! आज तुम प्राणों से हाथ धो बैठोगे । उस पुरुष द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर मेरे मन में ऐसा विचार आया, अरे ! इस अधमने मेरे ज्येष्ठ पुत्र को, मझले पुत्र को और छोटे पुत्र को घर से ले आया, उनकी हत्या की । अब तुमको भी घर से लाकर मेरे सामने मार डालना चाहता है। इसलिए अच्छा यही है, मैं इस पुरुष को पकड़ लूँ । यों विचार कर मैं उसे पकड़ने के लिए उठा, इतने में वह आकाश में उड़ गया । उसे पकड़ने को फैलाए हुए मेरे हाथों में खम्भा आ गया । मैंने जोर-जोर से शोर किया ।
तब भद्रा सार्थवाही श्रमणोपासक चुलनीपिता से बोली- पुत्र ! ऐसा कोई पुरुष नहीं था, जो यावत् तुम्हारे छोटे पुत्र को घर से लाया हो, तुम्हारे आगे उसकी हत्या की हो । यह तो तुम्हारे लिए कोई देव-उपसर्ग था । इसलिए, तुमने यह भयंकर दृश्य देखा । अब तुम्हारा व्रत, नियम और पोषध भग्न हो गया है - खण्डित हो गया है । इसलिए पुत्र ! तुम इस स्थान - व्रत भंग रूप आचरण की आलोचना करो, तदर्थ तपःकर्म स्वीकार करो । श्रमणोपासक चुलनीपिता ने अपनी माता भद्रा सार्थवाही का कथन 'आप ठीक कहती हैं' यों कहकर विनयपूर्वक सूना । उस स्थान की आलोचना की, (यावत्) तपःक्रिया स्वीकार की ।
सूत्र - ३१
तत्पश्चात् श्रमणोपासक चुलनीपिता ने आनन्द की तरह क्रमश: पहली, यावत् ग्यारहवीं उपासक-प्रतिमा की यथाविधि आराधना की । श्रमणोपासक चुलनीपिता सौधर्म देवलोक में सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशान कोण में स्थित अरुणप्रभ विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ । वहाँ उसकी आयु-स्थिति चार पल्योपम की बतलाई गई है । महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध होगा ।
अध्ययन- ३ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
दीपरत्नसागर कृत् " ( उपासकदशा)" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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