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________________ आगम सूत्र ७, अंगसूत्र-७, 'उपासकदशा' अध्ययन/ सूत्रांक मित नहीं कर सका, तो वह श्रान्त, क्लान्त और खिन्न होकर धीरे-धीरे पीछे हटा । हटकर पोषधशाला से बाहर नीकला । विक्रियाजन्य हस्ति-रूप का त्याग किया । वैसा कर दिव्य, विकराल सर्प का रूप धारण किया । वह सर्प उग्रविष, प्रचण्डविष, घोरविष और विशालकाय था । वह स्याही और मूसा जैसा काला था । उसके नेत्रों में विष और क्रोध भरा था । वह काजल के ढेर जैसा लगता था । उसकी आँखें लाल-लाल थीं । उसकी दुहरी जीभ चंचल थी-कालेपन के कारण वह पृथ्वी की वेणी जैसा लगता था । वह अपना उत्कट-स्फुट-कुटिल-जटिल, कर्कशविकट-फन फैलाए हुए था । लुहार की धौंकनी की तरह वह फुकार रहा था । उसका प्रचण्ड क्रोध रोके नहीं रुकता था । वह सर्प रूपधारी देव जहाँ पोषधशाला थी, जहाँ श्रमणोपासक कामदेव था, वहाँ आया । श्रमणोपासक कामदेव से बोला-अरे कामदेव ! यदि तुम शील, व्रत भंग नहीं करते हो, तो मैं अभी सर्राट करता हआ तुम्हारे शरीर पर चढूँगा । पूँछ की ओर से तुम्हारे गले में लपेट लगाऊंगा । अपने तीखे, झहरीले दाँतों से तुम्हारी छाती पर डंक मारूँगा, जिससे तुम आर्त्त ध्यान और विकट दुःख से पीड़ित होते हुए असमय में ही जीवन से पृथक् हो जाओगे-मर जाओगे। सूत्र-२५ सर्प रूपधारी देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भय देखा तो वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर सर्राटे के साथ उसके शरीर पर चढ़ गया । पीछले भाग से उसके गले में तीन लपेट लगा दिए । लपेट लगाकर अपने तीखे, झहरीले दाँतों से उसकी छाती पर डंक मारा । श्रमणोपासक कामदेव ने उस तीव्र वेदना को सहनशीलता के साथ झेला । सर्प रूपधारी देव ने जब देखा-श्रमणोपासक कामदेव निर्भय है, वह उसे निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित, क्षुभित एवं विपरिणामित नहीं कर सका है तो श्रान्त, क्लान्त और खिन्न होकर वह धीरे-धीरे पीछे हटा । पोषधशाला से बाहर नीकला। देव-मायाजनित सर्प-रूप का त्याग किया । फ़िर उसने उत्तम, दिव्य देव-रूप धारण किया उस देव के वक्षःस्थल पर हार सुशोभित हो रहा था यावत् दिशाओं को उद्योतित, प्रभासित, दर्शनीय, मनोज्ञ, प्रतिरूप किया । वैसा कर श्रमणोपासक कामदेव की पोषधशाला में प्रविष्ट हुआ । प्रविष्ट होकर आकाश में अवस्थित हो छोटी-छोटी घण्टिकाओं से युक्त पाँच वर्गों के उत्तम वस्त्र धारण किए हुए वह श्रमणोपासक कामदेव से यों बोला-श्रमणोपासक कामदेव ! देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो, पुण्यशाली हो, कृत-कृत्य हो, कृतलक्षण-वाले हो। देवानुप्रिय ! तुम्हें निर्ग्रन्थ-प्रवचन में ऐसी प्रतिपत्ति-विश्वास-आस्था सुलब्ध है, सुप्राप्त है, स्वायत्त है, निश्चय ही तुमने मनुष्य-जन्म और जीवन का सुफल प्राप्त कर लिया। देवानप्रिय ! बात यों हई-शक्र-देवेन्द्र-देवराज इन्द्रासन पर स्थित होते हए चौरासी हजार सामानिक देवों यावत् बहुत से अन्य देवों और देवियों के बीच यों आख्यात, भाषित, प्रज्ञप्त या प्ररूपित किया-कहा । देवो ! जम्बू द्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में, चंपा नगरी में श्रमणोपासक कामदेव पोषधशाला में पोषध स्वीकार किए, ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ कुश के बिछौने पर अवस्थित हुआ श्रमण भगवान महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति के अनुरूप उपासनारत है । कोई देव, दानव, गन्धर्व द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन से यह विचलित, क्षुभित तथा विपरिणामित नहीं किया जा सकता । शक्र, देवेन्द्र, देवराज के इस कथन में मुझे श्रद्धा, प्रतीति-नहीं हुआ । वह मुझे अरुचिकर लगा । मैं शीघ्र यहाँ आया । देवानुप्रिय ! जो ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषोचित पराक्रम तुम्हें उपलब्ध-प्राप्त तथा अभिसमन्वागत-है, वह सब मैंने देखा । देवानुप्रिय ! मैं तुमसे क्षमा-याचना करता हूँ। मुझे क्षमा करो । आप क्षमा करने में समर्थ हैं । मैं फिर कभी ऐसा नहीं करूँगा । यों कहकर पैरों में पड़कर, उसने हाथ जोड़कर बार-बार क्षमा-याचना की । जिस दिशा से आय था, उसी दिशा की ओर चला गया । तब श्रमणोपासक कामदेव ने यह जानकर कि अब उपसर्ग-विघ्न नहीं रहा है, अपनी प्रतिमा का पारण-समापन किया। सूत्र - २६ श्रमणोपासक कामदेव ने जब यह सूना कि भगवान महावीर पधारे हैं, तो सोचा, मेरे लिए यह श्रेयस्कर है, मैं श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार कर, वापस लौट कर पोषध का समापन करूँ | यों सोचकर उसने मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उपासकदशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 14
SR No.034674
Book TitleAgam 07 Upasakdasha Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 07, & agam_upasakdasha
File Size2 MB
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