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आगम सूत्र ७, अंगसूत्र-७, 'उपासकदशा'
अध्ययन/ सूत्रांक खण्डित करना, भग्न करना, उज्झित करना-परित्याग करना तुम्हें नहीं कल्पता है-इनका पालन करने में तुम कृतप्रतिज्ञ हो । पर, यदि तुम आज शील, एवं पोषधोपवास का त्याग नहीं करोगे, मैं इस तलवार से तुम्हारे टुकड़ेटुकड़े कर दूँगा, जिससे हे देवानुप्रिय ! तुम आर्तध्यान एवं विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही जीवन से पृथक् हो जाओगे-प्राणों से हाथ धो बैठोगे । उस पिशाच द्वारा यों कहे जाने पर भी श्रमणोपासक कामदेव भीत, त्रस्त, उद्विग्न, क्षुभित एवं विचलित नहीं हुआ; घबराया नहीं। वह चूपचाप-शान्त भाव से धर्म-ध्यान में स्थित रहा। सूत्र - २२
पिशाच का रूप धारण किये हए देव ने श्रमणोपासक को यों निर्भय भाव से धर्म-ध्यान में निरत देखा । तब उसने दूसरी बार, तीसरी बार फिर कहा-मौत को चाहने वाले श्रमणोपासक कामदेव ! आज प्राणों से हाथ धौ बेठोगे । श्रमणोपासक कामदेव उस देव द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर भी अभीत रहा, अपने धर्मध्यान में उपगत रहा। सूत्र - २३
____ जब पिशाच रूपधारी उस देव ने श्रमणोपासक को निर्भय भाव से उपासना-रत देखा तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हआ, उसके ललाट में त्रिबलिक-चढ़ी भृकुटि तन गई। उसने तलवार से कामदेव पर वार किया और उसके टुकड़ेटुकड़े कर डाले । श्रमणोपासक कामदेव ने उस तीव्र तथा दुःसह वेदना को सहनशीलता पूर्वक झेला । जब पिशाच रूपधारी देव ने देखा, श्रमणोपासक कामदेव निर्भीक भाव से उपासना में रत है, वह श्रमणोपासक कामदेव को निर्ग्रन्थ प्रवचन-से विचलित, क्षुभित, विपरिणामित-नहीं कर सका है, उसके मनोभावों को नहीं बदल सका है, तो वह श्रान्त, क्लान्त और खिन्न होकर धीरे-धीरे पीछे हटा । पीछे हटकर पौषधशाला से बाहर नीकला । देवमायाजन्य पिशाच-रूप का त्याग किया । एक विशालकाय, हाथी का रूप धारण किया । वह हाथी सुपुष्ट सात अंगों से युक्त था । उसकी देह-रचना सुन्दर और सुगठित थी । वह आगे से उदग्र-पीछे से सूअर के समान झुका हुआ था । उसकी कुक्षि-बकरी की कुक्षि की तरह सटी हुई थी । उसका नीचे का होठ और सूंड लम्बे थे । मुँह से बाहर नीकले हुए दाँत उजले और सफेद थे । वे सोने की म्यान में प्रविष्ट थे । उसकी सूंड का अगला भाग कुछ खींचे हए धनष की तरह सन्दर रूप में मडा हआ था। उसके पैर कछए के समान प्रतिपर्ण और चपटे थे । उसके बीस नाखून थे । उसकी पूँछ देह से सटी हुई थी । वह हाथी मद से उन्मत्त था । बादल की तरह गरज रहा था। उसका वेग मन और वचन के वेग को जीतने वाला था।
ऐसे हाथी के रूप की विक्रिया करके पूर्वोक्त देव जहाँ पोषधशाला थी, जहाँ श्रमणोपासक कामदेव था, वहाँ आया । श्रमणोपासक कामदेव से पूर्व वर्णित पिशाच की तरह बोला-यदि तुम अपने व्रतों का भंग नहीं करते हो तो मैं तुमको अपनी सूंड से पकड़ लूँगा । पोषधशाला से बाहर ले जाऊंगा । ऊपर आकाश में ऊछालूँगा । उछालकर अपने तीखे और मूसल जैसे दाँतों से झेलूँगा । नीचे पृथ्वी पर तीन बार पैरों से रौदूंगा, जिससे तुम आर्त्त ध्यान होकर विकट दुःख से पीड़ित होते हुए असमय में ही जीवन से पृथक् हो जाओगे-हाथी का रूप धारण किए हुए देव द्वारा यों कहे जाने पर भी श्रमणोपासक कामदेव निर्भय भाव से उपासना-रत रहा। सूत्र - २४
हस्तीरूपधारी देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भीकता से अपनी उपासना में निरत देखा, तो उसने दूसरी बार, तीसरी बार फिर श्रमणोपासक कामदेव को वैसा ही कहा, जैसा पहले कहा था । पर, श्रमणोपासक कामदेव पूर्ववत् निर्भीकता से अपनी उपासना में निरत रहा । हस्ती रूपधारी उस देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भीकता से उपासना में लीन देखा तो अत्यन्त क्रुद्ध होकर अपनी सूंड से उसको पकड़ा । आकाश में ऊंचा उछाला । नीचे गिरते हुए को अपनी तीखे और मूसल जैसे दाँतों से झेला और झेलकर नीचे जमीन पर तीन बार पैरों से रौंदा । श्रमणोपासक कामदेव ने वह असह्य वेदना झेली।
जब हस्ती रूपधारी देव श्रमणोपासक कामदेव को निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित, क्षुभित तथा विपरिणा
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उपासकदशा) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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