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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/ वर्ग/उद्देशक/सूत्रांक जानना चाहिए। भगवन् ! मनोयोग-चलना को मनोयोग-चलना क्यों कहा जाता है ? गौतम ! चूँकि मनोयोग को धारण करते हुए जीवों ने मनोयोग के योग्य द्रव्यों को मनोयोग रूप में परिणमाते हुए मनोयोग की चलना की थी, करते हैं
और करेंगे; इसलिए हे गौतम ! मनोयोग से सम्बन्धित चलना को मनोयोग-चलना कहा जाता है । इसी प्रकार वचनयोग-चलना एवं काययोग-चलना जानना। सूत्र - ७०५
भगवन् ! संवेग, निर्वेद, गुरु-साधर्मिक-शुश्रूषा, आलोचना, निन्दना, गर्हणा, क्षमापना, श्रुत-सहायता, व्युपशमना, भाव में अप्रतिबद्धता, विनिवर्त्तना, विविक्तशयनासनसेवनता, श्रोत्रेन्द्रिय-संवर यावत् स्पर्शेन्द्रिय-संवर, योग-प्रत्याख्यान, शरीर-प्रत्याख्यान, कषायप्रत्याख्यान, सम्भोग-प्रत्याख्यान, उपधि-प्रत्याख्यान, भक्त-प्रत्याख्यान, क्षमा, विरागता, भावसत्य, योगसत्य, करणसत्य, मनःसमन्वाहरण, वचन-समन्वाहरण, काय-समन्वाह विवेक, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक, ज्ञान-सम्पन्नता, दर्शन-सम्पन्नता, चारित्र-सम्पन्नता, वेदना-अध्यासनता और मारणान्तिक-अध्यासनता, इन पदों का अन्तिम फल क्या कहा गया है ? हे आयुष्मन् श्रमण गौतम ! संवेद, निर्वेद आदि यावत्-मारणान्तिक अध्यासनता, इन सभी पदों का अन्तिम फल सिद्धि है। हे भगवन ! यह इसी प्रकार है।
शतक-१७ - उद्देशक-४ सूत्र-७०६
उस काल उस समय में राजगह नगर में यावत पछा-भगवन! क्या जीव प्राणातिपातिक्रिया करते हैं? हाँ. गौतम! करते हैं। भगवन् ! वह स्पृष्ट की जाती है या अस्पृष्ट की जाती है ? गौतम ! वह स्पृष्ट की जाती है, अस्पृष्ट नहीं की जाती; इत्यादि प्रथम शतक के छठे उद्देशक के अनुसार, वह क्रिया अनक्रम से की जाती है, बिना अनक्रम के नहीं, (तक) कहना । इसी प्रकार वैमानिकों तक कहना । विशेषता यह है कि जीव और एकेन्द्रिय निर्व्याघात की अपेक्षा से, छह दिशा से आए हुए और व्याघात की अपेक्षा से कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पाँच दिशाओं से आए हए कर्म करते हैं। शेष सभी जीव छह दिशा से आए हए कर्म करते हैं।
भगवन् ! क्या जीव मृषावाद-क्रिया करते हैं? हाँ, गौतम ! करते हैं । भगवन् ! वह क्रिया स्पृष्ट की जाती है या अस्पृष्ट की जाती है ? गौतम ! प्राणातिपात के दण्डक के समान मृषावाद-क्रिया का भी दण्डक कहना चाहिए । इसी प्रकार अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह के विषय में भी जान लेना चाहिए । इस प्रकार पाँच दण्डक हए।
भगवन् ! जिस समय जीव प्राणातिपातिकी क्रिया करते हैं, उस समय वे स्पृष्ट क्रिया करते हैं या अस्पृष्ट क्रिया करते हैं ? गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से- अनानुपूर्वीकृत नहीं की जाती है, यहाँ तक) कहना चाहिए । इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिए । इसी प्रकार पारिग्रहिकी क्रिया तक कहना चाहिए । ये पूर्ववत् पाँच दण्डक होते हैं। भगवन् ! जिस देश में जीव प्राणातिपातिकी क्रिया करते हैं, उस देश में वे स्पृष्ट क्रिया करते हैं या अस्पृष्ट क्रिया करते हैं? गौतम ! पूर्ववत् पारिग्रहिकी क्रिया तक जानना चाहिए । इसी प्रकार ये पाँच दण्डक होते हैं । भगवन् ! जिस प्रदेश में जीव प्राणातिपातिकी क्रिया करते हैं, उस प्रदेश में स्पृष्ट क्रिया करते हैं या अस्पृष्ट क्रिया करते हैं ? गौतम ! पूर्ववत् दण्डक कहना चाहिए । इस प्रकार पारिग्रहिकी क्रिया तक जानना चाहिए । यों ये सब मिलाकर बीस दण्डक हुए। सूत्र-७०७
भगवन् ! जीवों का दुःख आत्मकृत है, परकृत है, अथवा उभयकृत है ? गौतम ! (जीवों का) दुःख आत्म-कृत है, परकृत नहीं और न उभयकृत है। इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिए। भगवन् ! जीव क्या आत्म-कृत दुःख वेदते हैं, परकृत दुःख वेदते हैं, या उभयकृत दुःख वेदते हैं ? गौतम ! जीव आत्मकृत दुःख वेदते हैं, परकृत दुःख नहीं वेदते और न उभयकृत दुःख वेदते हैं । इसी प्रकार वैमानिक तक समझना चाहिए।
भगवन् ! जीवों को जो वेदना होती है, वह आत्मकृत है, परकृत है अथवा उभयकृत है ? गौतम ! जीवों की वेदना आत्मकृत है, परकृत नहीं, और न उभयकृत है। इसी प्रकार वैमानिकों तक जानना चाहिए। भगवन् ! जीव क्या आत्मकृत वेदना वेदते हैं, परकृत वेदना वेदते हैं, अथवा उभयकृत वेदना वेदते हैं ? गौतम ! जीव आत्म-कृत
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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