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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक जानना चाहिए । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में नैरयिकों के समान जानना चाहिए। सूत्र- ७००
भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि (हमारे मत में) ऐसा है कि श्रमण पण्डित हैं, श्रमणोपासक बाल-पण्डित हैं और जिस मनुष्य ने एक भी प्राणी का दण्ड छोड़ा हआ नहीं है, उसे एकान्त बाल कहना चाहिए; तो हे भगवन् ! अन्यतीर्थिकों का यह कथन कैसे यथार्थ हो सकता है ? गौतम ! अन्यतीर्थिकों ने जो यह कहा है कि श्रमण पण्डित हैं...यावत् एकान्त बाल कहा जा सकता है, उनका यह कथन मिथ्या है । मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि श्रमण पण्डित हैं, श्रमणोपासक बाल-पण्डित हैं, परन्तु जिस जीव ने एक भी प्राणी के वध को त्यागा है, उसे एकान्त बाल नहीं कहा जा सकता।
भगवन् ! क्या जीव बाल हैं, पण्डित हैं अथवा बाल पण्डित हैं ? गौतम ! जीव बाल भी हैं, पण्डित भी हैं और बाल-पण्डित भी हैं । भगवन् ! क्या नैरयिक बाल हैं, पण्डित हैं अथवा बालपण्डित हैं ? गौतम ! नैरयिक बाल हैं, वे पण्डित नहीं हैं और न बालपण्डित हैं। इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों तक (कहना चाहिए)। भगवन् ! क्या पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव बाल हैं ? प्रश्न । गौतम ! पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक बाल हैं और बाल-पण्डित भी हैं; किन्तु पण्डित नहीं हैं । मनुष्य, जीवों के समान हैं । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक नैरयिकों के समान (कहना चाहिए)। सूत्र-७०१
भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि प्राणातिपात, मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य में प्रवृत्त हुए प्राणी का जीव अन्य है और उस जीव से जीवात्मा अन्य है । प्राणातिपात-विरमण यावत् परिग्रह-विरमण में, क्रोधाविवेक यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य-त्याग में प्रवर्तमान प्राणी का जीव अन्य है और जीवात्मा उससे भिन्न है । औत्पत्तिकी बुद्धि यावत् पारिणामिकी बुद्धि में वर्तमान प्राणी का जीव अन्य है और जीवात्मा उस जीव से भिन्न है । अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा में वर्तमान प्राणी का जीव अन्य है और जीवात्मा उससे भिन्न है । उत्थान यावत् पराक्रम में वर्तमान प्राणी का जीव अन्य है, जीवात्मा उससे भिन्न है । नारक-तिर्यञ्च - मनुष्य-देव में वर्तमान प्राणी का जीव अन्य है, जीवात्मा अन्य है । ज्ञानावरणीय से लेकर अन्तराय कर्म में वर्तमान प्राणी का जीव अन्य है, जीवात्मा भिन्न है । इसी प्रकार कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या तक में, सम्यग्दृष्टि-मिथ्या-दृष्टिसम्यमिथ्यादृष्टि में, इसी प्रकार चक्षुदर्शन आदि चार दर्शनों में, आभिनिबोधिक आदि पाँच ज्ञानों में, मति-अज्ञान आदि तीन अज्ञानों में, आहारसंज्ञादि चार संज्ञाओं में एवं औदारिकशरीरादि पाँच शरीरों में तथा मनोयोग आदि तीन योगों में और साकारोपयोग में एवं निराकारोपयोग में वर्तमान प्राणी का जीव अन्य है और जीवात्मा अन्य है । भगवन् क्या यह सत्य है?
गौतम ! अन्यतीर्थिक जो इस प्रकार कहते हैं, यावत् वे मिथ्या कहते हैं । हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ-प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में वर्तमान प्राणी जीव हैं और वही जीवात्मा हैं, यावत् अनाकारोपयोग में वर्तमान प्राणी जीव हैं और वहीं जीवात्मा हैं। सूत्र - ७०२
भगवन् ! क्या महर्द्धिक यावत् महासुख-सम्पन्न देव, पहले रूपी होकर बाद में अरूपी की विक्रिया करने में समर्थ है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं ? गौतम ! मैं यह जानता हूँ, मैं यह देखता हूँ, मैं यह निश्चित जानता हूँ, मैं यह सर्वथा जानता हूँ, मैंने यह जाना है, मैंने यह देखा है, मैंने यह निश्चित समझ लिया है और मैंने यह पूरी तरह से जाना है कि तथा प्रकार के सरूपी, सकर्म सराग, सवेद, समोह सलेश्य, सशरीर और उस शरीर से अविमुक्त जीव के विषय में ऐसा सम्प्रज्ञात होता है, यथा-उस शरीरयुक्त जीव में कालापन यावत् श्वेतपन, सुगन्धित्व या दुर्गन्धित्व, कटुत्व यावत् मधुरत्व, कर्कशत्व यावत् रूक्षत्व होता है । इस कारण, हे गौतम ! वह देव पूर्वोक्त प्रकार से यावत् विक्रिया करके रहने में समर्थ नहीं है।
भगवन् ! क्या वही जीव पहले अरूपी होकर, फिर रूपी आकार की विकुर्वणा करके रहने में समर्थ है ?
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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