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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/ वर्ग/उद्देशक/सूत्रांक हाँ, गौतम ! जिस प्रकार (तेरहवें शतक के) प्रथम उद्देशक में नैरयिकों के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए । नीललेश्यी के विषय में भी उसी प्रकार कहना चाहिए, इसी प्रकार यावत् पद्मलेश्यी देवों के विषय में कहना। शुक्ललेश्यी देवों के विषय में भी इसी प्रकार कहना । विशेषता यह है कि लेश्यास्थान विशुद्ध होते-होते शुक्ललेश्या में परिणत हो जाते हैं । शुक्ललेश्या में परिणत होने के पश्चात् ही (वे जीव) शुक्ललेश्यी देवों में उत्पन्न होते हैं । इस कारण से हे गौतम! उत्पन्न होते हैं ऐसा कहा गया है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-१३ - उद्देशक-३ सूत्र-५६८
भगवन् ! क्या नैरयिक जीव अनन्तराहारी होते हैं इसके बाद निवर्त्तना करते हैं? इत्यादि प्रश्न । (हाँ, गौतम!) वे इसी प्रकार से करते हैं । (इसके उत्तरमें) प्रज्ञापना सूत्र का परिचारणापद समग्र कहना । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है
शतक-१३ - उद्देशक-४ सूत्र-५६९
भगवन् ! नरकपृथ्वीयाँ कितनी हैं ? गौतम ! सात, यथा-रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तमा पृथ्वी । अधःसप्तमा पृथ्वी में पाँच अनुत्तर और महातिमहान् नरकावास यावत् अप्रतिष्ठान तक हैं । वे नरकावास छठी तमःप्रभापृथ्वी के नरकावासों से महत्तर हैं, महाविस्तीर्णतर हैं, महान अवकाश वाले हैं, बहुत रिक्त स्थान वाले हैं; किन्तु वे महाप्रवेश वाले नहीं हैं, वे अत्यन्त आकीर्णतर और व्याकुलतायुक्त नहीं हैं, उन नरकावासों में रहे हए नैरयिक, छठी तमःप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों की अपेक्षा महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले, महाश्रव वाले एवं महावेदना वाले हैं। वे न तो अल्पकर्म वाले हैं और न अल्प क्रिया, अल्प आश्रव और अल्पवेदना वाले हैं । वे नैरयिक अल्प ऋद्धि वाले और अल्पद्युति वाले हैं। वैसे वे महान् ऋद्धि वाले और महाद्युति वाले नहीं हैं।
छठी तमःप्रभा पृथ्वी में पाँच कम एक लाख नारकावास कहे गए हैं। वे नारकावास अधःसप्तमपृथ्वी के नारकावासों के जैसे न तो महत्तर हैं और न ही महाविस्तीर्ण हैं; न ही महान् अवकाश वाले हैं और न शून्य स्थान वाले हैं । वे महाप्रवेश वाले हैं, संकीर्ण हैं, व्याप्त हैं, विशाल हैं । उन नारकावासों में रहे हुए नैरयिक अधःसप्तम पृथ्वी के नैरयिकों की अपेक्षा अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्प-आश्रव और अल्पवेदना वाले हैं। वे अधःसप्तमपृथ्वी के नारकों के समान महाकर्म, महाक्रिया, महाश्रव और महावेदना वाले नहीं हैं। वे उनकी अपेक्षा महान ऋद्धि और महाद्यति वाले हैं, किन्तु वे उनकी तरह अल्पऋद्धि वाले और अल्पद्युति वाले नहीं हैं । छठी तमःप्रभानरकपृथ्वी के नारकावास पाँचवीं धूमप्रभानरकपृथ्वी के नारकावासों से महत्तर, महाविस्तीर्ण, महान् अवकाश वाले, महान् रिक्त स्थान वाले हैं। वे पंचम नरकपृथ्वी के नारकावासों की तरह महाप्रवेश वाले, आकीर्ण, व्याकुलतायुक्त एवं विशाल नहीं हैं । छठी पृथ्वी के नारकावासों के नैरयिक पाँचवी धूमप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की अपेक्षा महाकर्म, महाक्रिया, महाश्रव तथा महावेदना वाले हैं । उनकी तरह वे अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्पाश्रव एवं अल्पवेदना वाले नहीं हैं तथा वे उनसे अल्पवृद्धि वाले और अल्पद्युति वाले हैं, किन्तु महान् ऋद्धि वाले और महाद्युति वाले नहीं हैं।
पाँचवीं धूमप्रभापृथ्वी में तीन लाख नारकावास कहे गए हैं। इसी प्रकार जैसे छठी तमःप्रभापृथ्वी के विषय में परस्पर तारतम्य बताया, वैसे सातों नरकपृथ्वीयों के विषय के परस्पर तारतम्य, यावत् रत्नप्रभा तक कहना चाहिए, वह पाठ यावत् शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिक, रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की अपेक्षा महाऋद्धि और महाद्युति वाले नहीं हैं। वे उनकी अपेक्षा अल्पऋद्धि और अल्पद्युति वाले हैं, (यहाँ तक) कहना चाहिए। सूत्र- ५७०
भगवन् ! रत्नप्रभा के नैरयिक (वहाँ की) पृथ्वी के स्पर्श का कैसा अनुभव करते रहते हैं ? गौतम ! अनिष्ट यावत् मन के प्रतिकूल स्पर्श का अनुभव करते रहते हैं । इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमी पृथ्वी के नैरयिकों द्वारा पृथ्वीकाय के स्पर्शानुभव के विषय में कहना । इसी प्रकार अप्कायिक के स्पर्श का (अनुभव करते हुए रहते हैं ।) इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक के स्पर्श (के विषय में भी कहना चाहिए)।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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