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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक ४८ वर्ष होता है । त्रीन्द्रियों के साथ तीसरे गमक में उत्कृष्ट ३९२ रात्रि-दिवस होता है । इस प्रकार यावत्-संज्ञी मनुष्य तक सर्वत्र जानना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-२४ - उद्देशक-१९ सूत्र-८५५
भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न । त्रीन्द्रिय-उद्देशक चतुरिन्द्रिय जीवों के विषयमें समझना चाहिए । विशेष स्थिति और संवेध अनुसार (भिन्न) जानना । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-२४ – उद्देशक-२० सूत्र-८५६
भगवन् ! पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से यावत् देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे नैरयिकों से यावत् देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं । भगवन् ! यदि वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, अथवा यावत् वे अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिकों से ? गौतम ! वे रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से, यावत् अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं। भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी का नैरयिक, कितने काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति।
भगवन् ! वे जीव, एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? असुरकुमारों की वक्तव्यता समान कहनी चाहिए । विशेष यह है कि (रत्नप्रभा नैरयिकों के) संहनन में अनिष्ट और अकान्त पुद्गल यावत् परिणमन करते हैं । उनकी अवगाहना दो प्रकार की कही गई है-जो भवधारणीय अवगाहना है, वह जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट सात धनुष, तीन रत्नी और छह अंगुल की होती है। उत्तरवैक्रिय अवगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट पन्द्रह धनुष ढ़ाई हाथ की होती है । भगवन् ! उन जीवों के शरीर किस संस्थान वाले होते हैं ? गौतम! उनके शरीर दो प्रकार के कहे गए हैं-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । दोनों केवल हुण्डक-संस्थान वाले होते हैं । उनमें एकमात्र कापोतलेश्या होती है । चार समुद्घात होते हैं । वे केवल नपुंसकवेदी होते हैं । स्थिति जघन्य १०००० वर्ष
और उत्कृष्ट एक सागरोपम है। अनुबन्ध भी इसी प्रकार होता है। भव अपेक्षा से-जघन्य दो भव, उत्कृष्ठ आठ भव तथा काल अपेक्षा से जघन्य अन्तर्महर्त्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कष्ट चार पर्वकोटि अधिक चार सागरोपम।
यदि वह (रत्नप्रभा-नैरयिक) जघन्य काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यंचों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यंच में उत्पन्न होता है। शेष पूर्ववत् । विशेष यह है कि काल की अपेक्षा से पूर्वोक्त अनुसार और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहर्त्त अधिक चार सागरोपम । इसी प्रकार शेष सात गमक, नैरयिक-उद्देशक के संज्ञी पंचेन्द्रियों अनुसार जानना चाहिए । बीच के तीन अन्तिम तीन गमकों में स्थिति की विशेषता है। शेष पूर्ववत् सर्वत्र स्थिति और संवेध उपयोगपर्वक जान लेना।
भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी का नैरयिक कितने काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यंचों में उत्पन्न होता है ? रत्नप्रभा के नौ गमक अनुसार नौ गमक कहना । विशेष यह है कि शरीर की अवगाहना, अवगाहना-संस्थान-पद के अनुसार जानना । उनमें तीन ज्ञान और तीन अज्ञान नियम से होते हैं। स्थिति और अनुबन्ध पहले कहा गया है। इस प्रकार नौ ही गमक उपयोग-पूर्वक कहना । इसी प्रकार यावत् छठी नरकपृथ्वी तक जानना । विशेष यह कि अवगाहना, लेश्या, स्थिति, अनुबन्ध और संवेध (भिन्न-भिन्न) जानना।
__ भगवन् ! अधःसप्तमीपृथ्वी का नैरयिक, कितने काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यंचों में उत्पन्न होता है? इत्यादि प्रश्न । गौतम ! पूर्वोक्त सूत्र के अनुसार इसके भी नौ गमक कहने चाहिए । विशेष यह है कि यहाँ अवगाहना, लेश्या, स्थिति और अनुबन्ध भिन्न-भिन्न जानने चाहिए । संवेध-भव की अपेक्षा से-जघन्य दो भव उत्कृष्ट छह भव, तथा काल की अपेक्षा से-जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक ६६ सागरोपम । प्रथम के छह गमकों में जघन्य दो भव और उत्कृष्ट छह भव तथा अन्तिम तीन गमकों में जघन्य दो भव
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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