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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/ वर्ग/उद्देशक/सूत्रांक वे जीव साकारोपयोग वाले हैं या अनाकारोपयोग-युक्त हैं ? गौतम! वे दोनों उपयोग वाले होते हैं।
भगवन् ! उन जीवों के कितनी संज्ञाएं कही गई हैं ? गौतम ! चार संज्ञाएं यथा-आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा । भगवन् ! उन जीवों के कितने कषाय होते हैं ? गौतम ! उनके चार कषाय होते हैं, यथाक्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषाय । भगवन् ! उन जीवों के कितनी इन्द्रियाँ कही गई हैं ? गौतम ! पाँच इन्द्रियाँ यथा-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, यावत् स्पर्शेन्द्रिय । भगवन् ! उन जीवों के कितने समुद्घात कहे हैं ? गौतम ! तीन यथा-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात । भगवन् ! वे जीव साता-वेदक हैं या असाता-वेदक हैं? गौतम ! वे सातावेदक भी हैं और असातावेदक भी हैं। भगवन् ! वे जीव स्त्रीवेदक हैं, पुरुषवेदक हैं या नपुंसकवेदक हैं ? गौतम ! वे न तो स्त्रीवेदक होते हैं और न ही पुरुषवेदक होते हैं, किन्तु नपुंसकवेदक हैं।
__ भगवन् ! उन जीवों के कितने काल की स्थिति कही गई है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि भगवन् ! उन जीवों के कितने अध्यवसाय-स्थान कहे हैं ? गौतम ! असंख्यात हैं । भगवन् ! उनके वे अध्यवसाय-स्थान प्रशस्त होते हैं या अप्रशस्त होते हैं ? गौतम ! वे प्रशस्त भी होते हैं और अप्रशस्त भी होते हैं । भगवन् ! वे जीव पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिकरूप में कितने काल तक रहते हैं ? गौतम ! जघन्य अन्त-र्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि
ते हैं । भगवन ! वे जीव पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक जीव हैं, फिर रत्न-प्रभापथ्वी में नैरयिकरूप से उत्पन्न हो और पुनः (उसी) पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक हों, यों कितना काल सेवन करते हैं और कितने काल तक गति-आगति करते हैं ? गौतम ! भवादेश से दो भव और कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग।
भगवन ! पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक जीव, जो जघन्यकाल-स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हों, तो हे भगवन ! वे कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं ? गौतम! जघन्य और उत्कृष्ट दोनों दस हजार वर्ष की स्थिति वालों में । भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! पूर्वकथित वक्तव्यता, यावत् अनुबन्ध | भगवन् ! वे जीव पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक हों, फिर जघन्य काल की स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हों और पुनः पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक हों तो यावत् कितने काल तक गति-आगति करते हैं ? गौतम ! भवादेश से दो भव ग्रहण करते हैं, और कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटि।
भगवन् ! पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक जीव, रत्नप्रभा में उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हों, तो वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट दोनों पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वालों में । भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न । गौतम! पूर्ववत् जानना । भगवन् ! वह जीव, पर्याप्त, असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक हो, फिर उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हों और पुनः पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक हो तो वह यावत् गमनागमन करता रहता है ? गौतम ! भवादेश से दो भव ग्रहण करता है और काल की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग तथा उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग।
भगवन् ! जघन्य स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक जीव जो रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो, वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है।
भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न । गौतम ! पूर्ववत् समझना । विशेषतः आयु, अध्यवसाय और अनुबन्ध, इन तीन बातों में अन्तर है, यथा-आयुष्य जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है । भगवन् ! उन जीवों के अध्यवसाय कितने कहे हैं ? गौतम ! असंख्यात हैं । भगवन् ! अध्य-वसाय प्रशस्त होते हैं, या अप्रशस्त ? गौतम ! वे प्रशस्त नहीं होते, अप्रशस्त होते हैं । उनका अनुबन्ध अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। शेष पूर्ववत् । भगवन् ! वह जीव, जघन्यकाल की स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यंच-योनिक हो, (फिर) रत्नप्रभापृथ्वी में यावत् गमनागमन करता रहता है ? गौतम ! वह भवादेश से दो भव ग्रहण करता है और कालादेश से
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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