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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक
शतक-२१ सूत्र-८०६
शालि, कलाय, अलसी, बाँस, इक्षु, दर्भ, अभ्र, तुलसी इस प्रकार ये आठ वर्ग हैं । प्रत्येक वर्ग में दस-दस उद्देशक हैं । इस प्रकार कुल ८० उद्देशक हैं।
शतक-२१ - वर्ग-१ - उद्देशक-१ सूत्र-८०७
राजगृह नगर में यावत् पूछा-भगवन् ! अब शालि, व्रीहि, गोधूम-(यावत्) जौ, जवजव, इन सब धान्यों के मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? नैरयिकों से आकर अथवा तिर्यंचों, मनुष्यों या देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! व्युत्क्रान्ति-पद के अनुसार उपपात समझना चाहिए । विशेष यह है कि देवगति से आकर ये मूलरूप में उत्पन्न नहीं होते हैं । भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं? गौतम ! वे जघन्य एक, दो या तीन, उत्कृष्ट संख्यात अथवा असंख्यात उत्पन्न होते हैं । इनका अपहार उत्पल-उद्देशक अनुसार है
भगवन् ! इन जीवों के शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है ? गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग की और उत्कृष्ट धनुष-पृथक्त्व की । भगवन् ! वे जीव ज्ञानावरणीयकर्म के बन्धक हैं या अबन्धक ? गौतम ! उत्पल-उद्देशक समान जानना चाहिए । इसी प्रकार (कर्मों के) वेदन, उदय और उदीरणा के विषय में भी (जानना) । भगवन ! वे जीव कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी या कापोतलेश्यी होते हैं ? गौतम ! छब्बीस भंग कहना । दृष्टि से लेकर यावत इन्द्रियों के विषय में उत्पलोद्देशक के अनुसार है।
भगवन् ! शालि, व्रीहि, गेहूँ, यावत् जौ, जवजव आदि के मूल का जीव कितने काल तक रहता है ? गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल रहता है । भगवन् ! शालि, व्रीहि, गोधूम, जौ, (यावत्) जवजव के मूल का जीव, यदि पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न हो और फिर पुनः शालि, व्रीहि यावत् जौ, जवजव आदि धान्यों के मूल रूप में उत्पन्न हो, तो इस रूप में वह कितने काल तक रहता है ? तथा कितने काल तक गति-आगति करता रहता है ? हे गौतम ! उत्पल-उद्देशक के अनुसार है । इस अभिलाप से मनुष्य एवं सामान्य जीव तक कहना चाहिए। आहार (सम्बन्धी निरूपण) भी उत्पलोद्देशक के समान हैं । (इन जीवों की) स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व की है। समुद्घात-समवहत और उद्वर्त्तना उत्पलोद्देशक के अनुसार है।
भगवन् ! क्या सर्व प्राण, सर्व भूत, सर्व जीव और सर्व सत्त्व शालि, व्रीहि, यावत् जवजव के मूल जीव रूप में इससे पूर्व उत्पन्न हो चूके हैं? हाँ, गौतम! अनेक बार या अनन्त बार (उत्पन्न हो चूके हैं)। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है
शतक-२१ - वर्ग-१ - उद्देशक-२ से १० सूत्र-८०८-८१४
भगवन् ! शालि, व्रीहि, यावत् जवजव, इन सबके कन्द रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? (गौतम!) कन्द के विषयमें, वही मूल का समग्र उद्देशक, कहना । भगवन् ! यह इसी प्रकार है
इसी प्रकार स्कन्ध का उद्देशक भी कहना चाहिए। इसी प्रकार त्वचा का उद्देशक भी कहना चाहिए। शाखा के विषय में भी (पूर्ववत्) कहना चाहिए। प्रवाल के विषय में भी (पूर्ववत्) कहना चाहिए। पत्र के विषयमें भी (पूर्ववत्) कहना चाहिए । ये सातों ही उद्देशक समग्ररूप से मूल उद्देशक समान जानना।
पुष्प के विषय में भी (पूर्ववत्) उद्देशक कहना । विशेष यह है कि पुष्प के रूप में देव उत्पन्न होता है । उत्पलोद्देशकमें जैसे चार लेश्याएं और उनके अस्सी भंग कहे हैं, वैसे यहाँ भी कहना। इसकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट अंगुल-पृथक्त्व होती है । पुष्प अनुसार फल के विषयमें भी समग्र उद्देशक कहना | बीज के विषय में भी इसी प्रकार कहना । इस प्रकार दस उद्देशक पूर्ण हुए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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