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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक करके पीछे उत्पन्न होते हैं ? पूर्ववत् कहना । इसी क्रम से यावत् तमःप्रभा और अधःसप्तम पृथ्वी के मध्य में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प यावत् ईषत्प्राग्भारापृथ्वी में (पूर्ववत्) उपपात कहने चाहिए।
भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, सौधर्म-ईशान और सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्प के मध्य में मरणसमुद्घात करके इस रत्नप्रभापृथ्वी में पृथ्वीकायिकरूप में उत्पन्न होने योग्य हैं, वह पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करता है, अथवा पहले आहार करके फिर उत्पन्न होता है ? गौतम ! पूर्ववत् । यावत् इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा गया है, इत्यादि उपसंहार तक कहना चाहिए । भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, सौधर्म-ईशान और सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्प के मध्य में मरणसमुदघात करके शर्कराप्रभा पथ्वी में पृथ्वीकायिकरूप से उत्पन्न होने योग्य हैं. वह पहले यावत पीछे उत्पन्न होता है ? इत्यादि प्रश्न । गौतम! पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक उपपात ।
इसी प्रकार सनत्कुमार-माहेन्द्र और ब्रह्मलोक कल्प के मध्य में मरणसमुद्घात करके पुनः रत्नप्रभा से लेकर यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक उपपात कहने चाहिए । इसी प्रकार ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प के मध्य में मरणसमुद् घातपूर्वक पुनः अधःसप्तमपृथ्वी तक के सम्बन्ध में कहना चाहिए । इसी प्रकार लान्तक और महाशुक्र कल्प, महाशुक्र और सहस्रार कल्प, सहस्रार और आनत-प्राणत कल्प, आनत-प्राणत और आरण-अच्युत कल्प, आरणअच्युत और ग्रैवेयक विमानों, ग्रैवेयक विमानों और अनुत्तरविमानों एवं अनुत्तरविमानों और ईषत्प्राग्भारा-पृथ्वी के अन्तराल में मरणसमुद्घातपूर्वक पुनः अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना । सूत्र - ७९०
भगवन् ! जो अप्कायिक जीव, इस रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा पृथ्वी के बीच में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में अप्कायिक के रूप में उत्पन्न होने योग्य हैं, वह पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करता है या पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होता है ? गौतम ! शेष समग्र पृथ्वीकायिक के समान । इसी प्रकार पहली और दूसरी पृथ्वी के बीच में मरणसमुद्घातपूर्वक अप्कायिक जीवों का यावत् ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक उपपात जानना । इसी प्रकार यावत् तमःप्रभा और अधःसप्तमा के मध्य में मरणसमुद्घातपूर्वक अप्कायिक जीवों का यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक अप्कायिक रूप में उपपात जानना।
भगवन् ! जो अप्कायिक जीव, सौधर्म-ईशान और सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्प के बीच में मरणसमदघात करके रत्नप्रभा-पृथ्वी में घनोदधि-वलयों में अप्कायिक-रूप में उत्पन्न होने योग्य हैं; इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न | शेष सब पृथ्वीकायिक के समान जानना चाहिए । इस प्रकार इन अन्तरालों में मरणसमुद्घात को प्राप्त अप्कायिक जीवों का अधःसप्तमपृथ्वी तक के घनोदधिवलयों में अप्कायिकरूप से उपपात कहना चाहिए । इसी प्रकार यावत् अनुत्तरविमान और ईषत्प्राग्भारापृथ्वी के बीच यावत अप्कायिक के रूप में उपपात जानना। सूत्र - ७९१
भगवन् ! जो वायुकायिक जीव, इस रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा पृथ्वी के मध्य में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में वायुकायिक रूप से उत्पन्न होने योग्य हैं; इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न । गौतम ! सत्तरहवे शतक के दसवे उद्देशक समान यहाँ भी कहना । विशेष यह है कि रत्नप्रभा आदि पृथ्वीयों के अन्तरालों में मरणसमुद्घातपूर्वक कहना चाहिए । इस प्रकार यावत् अनुत्तरविमानों और ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के मध्य में मरणसमुद्घात करके जो वायुकायिक जीव अधःसप्तमपृथ्वी में घनवात और तनुवात तथा घनवातवलयों और तनुवातवलयों में वायुकायिक-रूप से उत्पन्न होने योग्य हैं, इत्यादि सब कथन पूर्ववत्, यावत्- इस कारण उत्पन्न होते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-२०- उद्देशक-७ सूत्र - ७९२
भगवन् ! बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! तीन प्रकार का, यथा-जीवप्रयोगबन्ध, अनन्तर-बन्ध और परम्परबन्ध । भगवन् ! नैरयिक जीवों के बन्ध कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार वैमानिकों तक
भगवन ! ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध कितने प्रकार का है ? गौतम ! तीन प्रकार का । यथा जीवप्रयोगबन्ध
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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