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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/ वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक भगवन् ! क्या चरम नैरयिकों की अपेक्षा परम नैरयिक महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले, महास्रव वाले और महा वेदना वाले हैं ? तथा परम नैरयिकों की अपेक्षा चरम नैरयिक अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्पास्रव और अल्पवेदना वाले हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं ? गौतम ! स्थिति की अपेक्षा से इसी कारण, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि...यावत्- अल्पवेदना वाले हैं। भगवन् ! क्या असुरकुमार चरम भी हैं और परम भी हैं ? हाँ, गौतम ! वे दोनों हैं, किन्तु विशेष यह है कि यहाँ पूर्वकथन से विपरीत कहना चाहिए । (जैसे कि-) परम असुरकुमार अल्पकर्म वाले हैं और चरम असुरकुमार महाकर्म वाले हैं । शेष पूर्ववत् स्तनितकुमार-पर्यन्त इसी प्रकार जानना । पृथ्वीकायिकों से लेकर मनुष्यों तक नैरयिकों के समान समझना । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के सम्बन्ध में असुरकुमारों के समान कहना। सूत्र-७६७
भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की है ? गौतम ! दो प्रकार की-निदा वेदना और अनिदा वेदना । भगवन् ! नैरयिक निदा वेदना वेदते हैं या अनिदा वेदना ? प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार वैमानिकों तक जानना । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-१९ - उद्देशक-६ सूत्र - ७६८
भगवन् ! द्वीप और समुद्र कहाँ हैं ? भगवन् ! द्वीप और समुद्र कितने हैं ? भगवन् ! द्वीप-समुद्रों का आकार कैसा कहा गया है ? (गौतम !) यहाँ जीवाभिगमसूत्र की तृतीय प्रतिपत्ति में, द्वीप-समुद्र-उद्देशक यावत् परिणाम, जीवों का उत्पाद और यावत् अनन्त बार तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-१९ - उद्देशक-७ सूत्र - ७६९
भगवन् ! असुरकुमारों के कितने लाख भवनावास कहे गए हैं ? गौतम ! चौंसठ लाख भवनावास हैं । भगवन् ! वे भवनावास किससे बने हुए हैं ? गौतम ! वे भवनावास रत्नमय हैं, स्वच्छ, श्लक्ष्ण यावत् प्रतिरूप हैं। उनमें बहुत-से जीव
और पुद्गल उत्पन्न होते हैं, विनष्ट होते हैं, च्यवते हैं और पुनः उत्पन्न होते हैं । वे भवन द्रव्यार्थिक रूप से शाश्वत हैं, किन्तु वर्णपर्यायों, यावत् स्पर्शपर्यायों की अपेक्षा से अशाश्वत हैं । इसी प्रकार स्तनित-कुमारों तक जानना चाहिए । भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों के भूमिगत नगरावास कितने लाख कहे गए हैं ? गौतम ! अंख्यात लाख नगरावास कहे गए हैं। भगवन् ! वाणव्यन्तरों के वे नगरावास किससे बने हुए हैं ? गौतम ! पूर्ववत् समझना चाहिए।
भगवन् ! ज्योतिष्क देवों के विमानावास कितने लाख कहे गए हैं ? गौतम ! असंख्येय लाख कहे गए हैं। भगवन् ! वे विमानावास किस वस्तु से निर्मित हैं ? गौतम ! वे विमानावास सर्वस्फटिकरत्नमय हैं और स्वच्छ हैं; शेष पूर्ववत् । भगवन् ! सौधर्मकल्प में कितने लाख विमानावास कहे गए हैं ? गौतम ! बत्तीस लाख हैं । भगवन् ! वे विमानावास किस वस्तु के बने हुए हैं ? गौतम ! वे सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, शेष पूर्ववत् । इसी प्रकार अनुत्तर-विमान तक कहना चाहिए । विशेष यह कि जहाँ जितने भवन या विमान हों, (उतने कहने चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है। सूत्र - ७७०
भगवन् ! जीवनिर्वृत्ति कितने प्रकार की है ? गौतम ! पाँच प्रकार की-एकेन्द्रिय-जीवनिर्वृत्ति यावत् पंचेन्द्रियजीवनिर्वृत्ति । भगवन् ! एकेन्द्रिय-जीवनिर्वृत्ति कितने प्रकार की है ? गौतम ! पाँच प्रकार की-पृथ्वी-कायिकएकेन्द्रिय-जीवनिर्वृत्ति यावत् वनस्पतिकायिक-एकेन्द्रिय-जीवनिर्वृत्ति । भगवन् ! पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-जीवनिर्वृत्ति कितने प्रकार की है ? गौतम ! दो प्रकार की-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-जीवनिर्वृत्ति और बादर-पृथ्वीकायिकएकेन्द्रिय-जीवनिर्वृत्ति । इस अभिलाप द्वारा आठवें शतक के बृहद् बन्धाधिकार में कथित तैजस शरीर के भेदों के समान यहाँ भी जानना चाहिए, यावत्-भगवन् ! सर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकवैमानिकदेवपंचेन्द्रि-यजीवनिर्वृत्ति
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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