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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-2'
शतक/वर्ग/उद्देशक/ सूत्रांक सूत्र-७३७
भगवन् ! दो नैरयिक एक ही नरकावास में नैरयिकरूप से उत्पन्न हुए । उनमें से एक नैरयिक महाकर्म वाला यावत् महावेदना वाला और एक नैरयिक अल्पकर्म वाला यावत् अल्पवेदना वाला होता है, तो भगवन् ! ऐसा क्यों होता है ? गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-मायीमिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायीसम्यग्दृष्टि-उपपन्नक इनमें से जो मायीमिथ्यादृष्टि-उपपन्नक नैरयिक हैं वह महाकर्म वाला यावत् महावेदना वाला है, और उनमें जो अमायीसम्यग्दृष्टि-उपपन्नक नैरयिक है, वह अल्पकर्म वाला यावत् अल्पवेदना वाला होता है । भगवन् ! दो असुरकुमारों के महाकर्म-अल्पकर्मादि विषयक प्रश्न । हे गौतम ! वहाँ भी पूर्ववत् । इसी प्रकार एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़कर वैमानिकों तक समझना। सूत्र - ७३८
भगवन् ! जो नैरयिक मरकर अन्तर-रहित पंचेन्द्रियतिर्यञ्चोनिकों में उत्पन्न होने के योग्य हैं, भगवन् ! वह किस आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है ? गौतम ! वह नारक नैरयिक-आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है, और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक के आयुष्य के उदयाभिमुख-करके रहता है। इसी प्रकार मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य जीव के विषय में समझना । विशेष यह है कि वह मनुष्य के आयुष्य को उदयाभिमुख करके रहता है।
भगवन् ! जो असुरकुमार मरकर अन्तररहित पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य है, उसके विषय में पूर्ववत् प्रश्न है । गौतम ! वह असुरकुमार के आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है और पृथ्वीकायिक के आयुष्य को उदयाभिमुख करके रहता है । इस प्रकार जो जीव जहाँ उत्पन्न होने के योग्य है, वह उसके आयुष्य को उदयाभि-मुख करता है, और जहाँ रहा हुआ है, वहाँ के आयुष्य का वेदन करता है । इस प्रकार वैमानिक तक जानना चाहिए। विशेष यह है कि जो पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिकों में ही उत्पन्न होने योग्य है, वह अपने उसी पृथ्वी-कायिक के आयुष्य का वेदन करता है और अन्य पृथ्वीकायिक के आयुष्य को उदयाभिमुख करके रहता है । इसी प्रकार मनुष्य तक स्वस्थान में उत्पाद के विषय में कहना चाहिए । परस्थान में उत्पाद के विषय में पूर्वोक्तवत् समझना चाहिए। सूत्र - ७३९
__भगवन् ! दो असुरकुमार, एक ही असुरकुमारावास में असुरकुमार रूप से उत्पन्न हुए, उनमें से एक असुरकुमार देव यदि वह चाहे कि मैं ऋजु से विकुर्वणा करूँगा; तो वह ऋजु-विकुर्वणा कर सकता है और यदि वह चाहे कि मैं वक्र रूप में विकुर्वणा करूँगा, तो वह वक्र-विकुर्वणा कर सकता है । जब कि एक असुरकुमारदेव चाहता है कि मैं ऋज-विकर्वणा करूँ, परन्तु वक्ररूप की विकुर्वणा हो जाती है और वक्ररूप की विकुर्वणा करना चाहता है, तो ऋजुरूप की विकुर्वणा हो जाती है । भगवन् ! ऐसा क्यों होता है ? गौतम ! असुरकुमार देव दो प्रकार के हैं, यथामायीमिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायीसम्यग्दृष्टि-उपपन्नक । जो मायीमिथ्यादृष्टि-उपपन्नक असुरकुमार देव हैं, वह ऋजुरूप की विकुर्वणा करना चाहे तो वक्ररूप की विकुर्वणा हो जाती है, यावत् वह विकुर्वणा नहीं कर पाता किन्तु जो अमायीसम्यग्दृष्टि-उपपन्नक असुरकुमार देव है, वह ऋजुरूप की विकुर्वणा करना चाहे तो ऋजुरूप कर सकता है, यावत् जो विकुर्वणा करना चाहता है, वह कर सकता है।
भगवन् ! दो नागकुमारों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न है । गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक के विषय में जानना चाहिए)। वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में भी इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-१८ - उद्देशक-६ सूत्र-७४०
भगवन् ! फाणित गुड़ कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श वाला कहा गया है ? गौतम! इस विषय में दो नयों हैं, यथा-नैश्चयिक नय और व्यावहारिक नय । व्यावहारिक नय की अपेक्षा से फाणित-गुड़ मधुर रस वाला कहा गया है और नैश्चयिक नय की दृष्टि से गुड़ पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श वाला कहा गया है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती-२) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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